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चतुर्थ शतकम् केसररअविच्छड्डे मअरन्दो होइ जेत्तिओ कमले। जइ भमर तेन्तिओ अण्णहि पि ता सोहसि भमन्तो ॥ ८७ ॥
[ केसररजःसमूहे मकरन्दो भवति यावान्कमले ।
यदि भ्रमर तावानन्यत्रापि तदा शोभसे भ्रमन् ।। ] हे भ्रमर ! कमल के किंजल्क के धूल समूह में जितना मकरकन्द रहता है, यदि उतना अन्यत्र भी प्राप्त हो, तभी तुम्हारे मँडराने की शोभा है ।। ८७ ॥ पेच्छन्ति अणिमिसच्छा पहिआ हलिअस्स पिट्ठपण्ड्डरिअं । धूअं दुद्धसमुहुत्तरन्तलच्छि विअ सअह्ना ॥८८॥ [प्रेक्षन्तेऽनिमिषाक्षाः पथिका हलिकस्य पिष्टपाण्डुरिताम् ।
दुहितरं दुग्धसमुद्रोत्तरलक्ष्मोमिव सतृष्णाः ॥] गेहूँ पीसते समय उड़े हये आटे की धूल से जिसका वर्ण पाण्डु हो गया था, हलवाहे की उस पुत्री को क्षीर-सिन्धु से निकली हुई लक्ष्मी के समान देखते हुये सतृष्ण पथिक पलकें ही नहीं गिराते ।। ८८ ॥ कस्स भरिसित्ति भणिए को मे अत्थि त्ति जम्पमाणाए। उविग्गरोइरीए अम्हे वि रुआविआ तीए ॥९॥
[कस्य स्मरसीति भणिते को मेऽस्तोति जल्पमानया ।
अद्विग्नरोदनशीलया वयमपि रोदितास्तया ।। ] 'किसका स्मरण करती हो ।' यह पूछने पर "मेरा कौन है ?" यह कह कर उद्वेग-पूर्वक रोने वाली तरुणी ने हमें भी रुला दिया ।। ८९ ॥ पाअपडिअं अहव्वे कि दाणिं ण उट्ठवेसि भत्तारं । एवं विअ अवसाणं दूरं पि गअस्स पेम्मस्स ॥ ९० ॥
[पादपतितमभव्ये किमिदानी नोत्थापयसि भर्तारम् ।
एतदेवावसानं दूरमपि गतस्य प्रेम्णः ॥] अरी अभागिन ! चरणों पर पड़े हुये पति को क्यों नहीं उठातो? वहुत बढ़े हुये प्रेम का भी चरम उत्कर्ष यही है ॥ ९० ॥ तडविणिहिअग्गहत्था वारितरङ्गेहिँ घोलिरणिअम्बा। सालूरी पडिबिम्बे पुरिसाअन्तिव्व पडिहाइ ॥ ९१ ॥
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