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गाथासप्तशती [तटविनिहिताग्रहस्ता वारितरङ्गैघूर्णनशीलनितम्बा ।
शालूरी प्रतिबिम्बे पुरुषायमाणेव प्रतिभाति ॥ ] जिसने अपने अगले पैर तट से संलग्न कर लिये हैं तथा जल की तरंगों से जिसका नितम्ब कंपित हो रहा है, वह मेंढकी मानों अपने प्रतिबिम्ब पर पुरुषामित (विपरीतरति ) कर रही है ।। ९१ ॥ सिक्करिअमणिममुहवेविआई धुअत्थसिजिअव्वाइं । सिक्खन्तु वोडहोओ कुसुम्भ तुम्ह प्यसाएण ॥ ९२ ॥ [ सोत्कृतमणितमुखवेपितानि धुतहस्तशिञ्जितव्यानि ।
शिक्षन्तु कुमार्यः कुसुम्भ युष्मत्प्रसादेन ।।] हे कुसुम्भ ! तुम्हारी कृपा से कुमारियाँ, सी-सी करना, मणित. मुंह मोड़ना, हाथ झिड़कना और भूषणों की झनकार की शिक्षा पा लें ॥ ९२ ॥ जेत्तिअमेत्ता रच्छा णिअम्ब कह तेत्तिओ ण जाओ सि । जं छिप्पइ गुरुअणलज्जिओ सरन्तो बि सो सुहओ ।। ९३ ॥
[यावात्प्रमाणा रथ्या नितम्ब कथं तावन्न जातोऽसि ।
येन स्पृश्यते गुरुजनलज्जापसृतोऽपि स सुभगः ॥] जितनो बड़ी यह गली है, नितम्ब ! तुम उतने बड़े क्यों न हुये ? जिससे गुरुजनों से लज्जित होकर लौटते हुये भी प्राणेश्वर का स्पर्श तुम्हें प्राप्त हो जाता ! ॥९३ ॥ मरगअसूईविद्धं व मोत्ति पिअइ आअअग्गीओ। मोरो पाउसआले तणग्गलग्गं उअअबिन्दु॥ ९४ ॥
[ मरकतसूचिविद्धमिव मौक्तिकं पिबत्यायतग्रोवः ।
मयूरः प्रावृटकाले तृणाग्रलग्नमुदकबिन्दुम् ॥ ] पावस में मरकत की सूई से बिधे मोतियों के समान तृणों की नोकों पर लटकते हुये जलविन्दुओं को, मयूर अपनी ग्रीवा उठा कर पी रहा है । ९४ ॥ अज्जाइ णोलकञ्चुअभरिउव्वरिअं विहाइ थणवढें । जलभरिअजलहरन्तरदरुग्गअं चन्दबिम्ब व्व ॥ ९५ ॥ [ आर्याया नीलकञ्चुकभृतोर्वरितं विभाति स्तनपृष्ठम् । जलभृतजलधरान्तरदरोद्गतं चन्द्रबिम्बमिव ॥]
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