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चतुर्थं शतकम् नीली कंचुकी में न समाता हुआ आर्या का स्तन-पृष्ठ यों प्रतीत होता है,, जैसे जल-पूर्ण मेघों के अन्तराल से झाँकता हुआ चन्द्र-बिम्ब ।। ९५ ॥
राअविरुद्धं व कहं पहिओ पहिअस्स साहइ ससळू। जत्तो अम्बाण दलं तत्तो दरणिग्गअं कि पि ॥ ९६ ॥ [ राजविरुद्धामपि कथां पथिकः पथिकस्य कथयति सशङ्कम् ।
यत आम्राणां दलं तत ईषन्निर्गतं किमपि ।। ] वह पथिक अन्य पथिकों से राज-विरुद्ध वाणी के समान यह कहते डर रहा है कि आमों के पल्लवों के ऊपर से कोई चीज़ कुछ निकल रही है । ९६॥ घण्णा ता महिलाओ जा दइअं सिविणए वि पेच्छन्ति । णिद्द विअ तेण विणा ण एइ का पेच्छए सिविणं ॥ ९७ ॥
[ धन्यास्ता महिला या दयितं स्वप्नेऽपि प्रेक्षन्ते ।
निद्रैव तेन विना नैति का प्रेक्षते स्वप्नम् ।। ] वे महिलायें धन्य हैं, जो स्वप्न में भी प्रिय के दर्शन पा जाती हैं । यहाँ तो उनके बिना नींद ही नहीं आती स्वप्न कौन देखता है ? ॥ ९७ ॥ परिरकणअकुण्डत्थलमणहरेसु सवणेसु । अण्णअसमअवसेण अ पहिरज्जइ तालवेण्टजुअं ॥ ९८ ॥ [ परिरब्धकनककुण्डलगण्डस्थलमनोहरयोः श्रवणयोः ।
अन्यसमयवशेन च परिध्रियते तालवृन्तयुगम् ।। ] जिनमें लटकते हुए स्वर्ण-कुण्डल कपोलों का चुम्बन करते रहते हैं, समय बदल जाने पर सुन्दरियाँ अपने उन्हीं मनोहर कानों में दो ताल-पत्र ही पहनती हैं ॥ ९८ ॥
मज्झलपत्थिअस्स वि गिम्हे पहिअस्स हरइ संतावं । हिअअट्ठिअजाआमुहअङ्कजीलाजलप्पवहो ॥९९ ॥
[ मध्याह्नपस्थितस्यापि ग्रीष्मे पथिकस्य हरति संतापं ।
हृदयस्थितजायामुखमृगाङ्कज्योत्स्नाजलप्रवाहः ॥] हृदय में प्रतिबिंबित पत्नी का मुखचन्द्र अपनी ज्योत्स्ना की अमृत-धारा से ग्रीष्म की दोपहरी में यात्रा करते हुए पथिक का संताप दूर कर देता है ॥ ९९ ॥
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