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गाथासप्तशती
भण को ण रुस्सइ जणो पस्थिज्जन्तो अएसकालम्मि । रतिवाअडा रुअन्तं पिअं वि पुत्तं सवइ माआ ॥१०॥ - [भण को न रुष्यति जनः प्रार्थ्यमानोऽदेशकाले।।
रतिव्यापृता रुदन्तं प्रियमपि पुत्रं शपते माता ॥] रति में व्याप्त माता अपने रोते प्रिय पुत्र को भी शाप देती है, देश और काल को पहचाने बिना जो प्रार्थना करता है, उस पर कौन कुपित नहीं होता ॥१०॥ एत्थं चउत्थं विरमइ गाहाण स सहावरमणिज्जं। ५ सोऊण जंण लग्गइ हिअए महुरत्तणेण अमिअंपि ॥ १०१॥ [अत्र चतुर्थं विरमति गाथानां शतं स्वभावरमणीयम् ।।
श्रुत्वा यन्न लगति हृदये मधुरत्वेनामृतमपि ॥] यह स्वभाव से रमणीय गाथाओं का चतुर्थ शतक समाप्त हो रहा है, जिसे सुनकर अमृत का माधुर्य भी हृदय को फोका लगेगा ॥ १०१ ॥
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