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पञ्चम शतकम्
उज्झसि डज्झ कट्टसि कट्टसु अह फुडसि हिअअ ता फुडसु । तह वि परिसेसिओ चिचअ सो हु मए गलि असबभावो ॥
१ ॥
[ दह्यसे दह्यस्व क्वथ्य से क्वथ्यस्व अथ स्फुटसि हृदय तत्स्फुट । तथापि परिशेषित एव सः खलु मया गलितसद्भावः ॥ ]
हे हृदय ! जल रहे हो, जलो, खौल रहे हो, खौलो और फट रहे हो तो फट जाओ, मैंने तो अब उसके स्नेह शून्य प्रेम को समाप्त ही कर डाला है ॥ १ ॥
दट्ठण रुन्दतुण्डग्गणिग्गअं णिअसुअस्स दाढग्गं ।
भोण्डी विणावि कज्जेण गामणिअडे जवे चरइ || २ ||
[ दृष्ट्वा विशालतुण्डाग्रनिर्गतं निजसुतस्य दंष्ट्राग्रम् । सूकरी विनापि कार्येण ग्रामनिकटे यवांश्चरति ॥ ]
अपने पुत्र के लम्बे मुख से निकली हुई पैनी दाढ़ देखकर वह शूकरी कोई काम न होने पर भी गाँव के पास जो चर रही हैं ॥ २ ॥
साअरं
हेलाकर ग्गअद्विअजलरिक्कं पआसन्तो । जअइ अणिग्गअवडवग्गिभरिअगगणो गणाहिवई ॥ ३ ॥
[ हेलाकराग्राकृष्टजलरिक्तं जयत्यनिग्रहवडवाग्निभृतगगनो
सागरं प्रकाशयन् । गणाधिपतिः ॥ ]
जिन्होंने खेल हो खेल में अपने शुण्ड से खींचकर सागर की सम्पूर्ण जलराशि पो लो और शेष बची हुई ( अनिर्गत ) वाडव-ज्वाला से आकाश को व्याप्त कर दिया है, उन भगवान् गणेश की जय हो ॥ ३ ॥
एएण चिचअ कंकेल्लि तुज्झ तं णत्थि जं ण पज्जतं । उवमिज्जइ जं तुह पल्लवेण वरकामिणीहत्थो ॥ ४ ॥
[ एतेनैव कङ्केल्ले तव तन्नास्ति यन्न पर्याप्तम् । उपमीयते यत्तव पल्लवेन वरकामिनीहस्तः ॥ ]
हे अशोक ! सुन्दरी महिलाओं के पाणिपद्म से तुम्हारी उपमा दी जाती है, यह क्या कम है ? ॥ ४ ॥
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