________________
प्रथमं शतकम्
मार्ग में दायीं ओर से बायीं ओर जाता हुआ कृष्णसार (मृगविशेष) अकेला होने पर भी जाने नहीं देता है तो फिर बाधाओं से भरे हुए ( श्लेष से - आँसुओं से भरे हुए ) प्रियतमा के दो-दो नेत्र [ जो कृष्णसार ही नहीं हैं, अपितु कृष्ण ( काले ) और शार ( विविध रंगों वाले ) भी हैं । ] कैसे जाने देंगे ? ।। २५ ।।
ण कुणन्तो व्विअ माणं णिसासु सुहसुत्तदर विबुद्धाणं । सुण्णइअपासपरिमूसणवेअणं जइ सि जाणन्तो ॥ २६ ॥
[ नाकरिष्य एव मानं निशासु सुखसुप्तदर विबुद्धानाम् । शून्यीकृत पार्श्वपरिमोषणवेदनां यद्यज्ञास्यः ॥ ]
रात्रि में सुख से सोते समय किंचित् नींद टूटने पर पार्श्व में सोई हुई प्रेमिका का स्थान रिक्त जान कर अपनी वंचना पर जो वेदना होती है, यदि उसका लेशमात्र भी अनुभव होता तो तुम इस प्रकार कभी भी मान न करते ।। २६ ।।
पणअकुविआण दोह्र वि अलिअपसुत्ताणं माणइल्लाणं । णिञ्चलणिरुद्धणोसास दिण्णकण्णाण को मल्लो ॥२७॥
[ प्रणयकुपितयोर्द्वयोरप्यलीकप्रसुप्तयोर्मानवतोः । निश्चलनिरुद्धनिःश्वासदत्तकर्णयोः को मल्लः ॥ ]
आपस में रूठ कर निद्रा के व्याज से अपने श्वास निश्चल एवं निरुद्ध किये एक दूसरे की ओर कानलगा कर लेटे हुए दम्पत्ति में कौन बड़ा है ? ।। २७ ।।
णवलअपहरं अङ्ग जेहिँ जेहिं महइ देवरो दाउं । रोमञ्चदण्डराई तह तहि दीसह
यत्रेच्छति देवरो
दातुम् ।
[ नवलताप्रहारमङ्गे यत्र रोमाञ्चदण्डरा जिस्तत्र तत्र दृश्यते वध्वाः ॥ ]
बहूए ॥ २८ ॥
चूतलतिका की क्रीड़ा में देवर जिस अंग पर लता का प्रहार करता है, वधू काही अंग पुलकों से पूर्ण हो जाता है ॥ २८ ॥
अज्ज मए तेण विणा अणुहूअसुहाइँ संभरन्तीए । अहिणवमेहाणं रवो णिसामिओ वज्झपडहो व्व ॥ २९ ॥ [ अद्य मया तेन विना अनुभूतसुखानि संस्मरन्त्या । अभिनवमेघानां रखो निशामितो वध्यपटह इव ॥ ]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org