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गाथासप्तशती आज उनके वियोग में पूर्वानुभूत सुखों का स्मरण करते हुए मैंने वध्य-पटह के समान अभिनव मेघों की गर्जना सुनी है ॥ २९ ॥ णिक्किव जाआभीरुअ दुदंसण णिम्बईडसारिच्छ । गामो गाणिणन्दण तुज्झ कए तह वि तणुआइ ॥३०॥
[ निष्कृप जायाभीरुक दुर्दर्शन निम्बकीटसदृक्ष ।
ग्रामो ग्रामणीनन्दन तव कृते तथापि तनुकायते ।। ] जायाभीरु ! निर्दय !! अलभ्यदर्शन !!! ग्रामणीनन्दन !!!! तुम नीम के कीड़े हो, फिर भी यह सारा गांव तुम्हारे लिए कृश होता जा रहा है । ।। ३० ॥ पहरवणमग्गविसमे जाआ किच्छेण लहइ से णिदं । गामणिउत्तस्स उरे पल्ली उण सा सुहं सुवई ॥३१॥
[प्रहारव्रणमार्गविषमे जाया कृच्छेण लभते तस्य निद्राम् ।
ग्रामणीपुत्रस्योरसि पल्ली पुनः सा सुखं स्वपिति ॥] शस्त्रों के प्रहार से विषम, ग्रामणी-पुत्र की छाती पर उस की भार्या तो कठिनता से ही सो पाती है किन्तु एक प्रहर में समाप्त होने वाले जंगली मार्ग के कारण दुर्गम वह पल्ली सुख से सोती है ॥ ३१ ॥
अह संभाविअमग्गो सुहअ तुए जेव्व गवर पिन्बूढो । एह्नि हिआए अण्णं अण्णं वाआइ लोअस्स ॥३२॥
[ अयं संभावितमार्गः सुभग त्वयैव केवलं नियूंढः ।
इदानीं हृदयेऽन्यदन्यद्वाचि लोकस्य ॥] लोगों के मन में कुछ रहता है और वाणी में कुछ और । सज्जनों की प्राचीन परम्परा का निर्वाह तो केवल तुम्हीं ने किया है, क्योंकि तुम्हारे मन में जो रहता है वही वाणी से व्यक्त भी करते हो ॥ ३२ ॥ उहाइँ गीससन्तो किंति मह परम्मुहीऍ सअणद्धे । हिअअं पलीविअ वि अणुसरण पुट्ठि पलोवेसि ॥३३॥
[उष्णानि निःश्वसन्किमिति मम पराङ्मुख्याः शयनार्धे ।
हृदयं प्रदोयाप्यनुशयेन पृष्ठं प्रदीपयसि ॥] तुम ने मेरे हृदय को पहले ही जला डाला था, आज आधी शया पर पराङ्. मुख होकर सो रही हूँ, तो गर्म श्वासों से मेरी पीठ को भी क्यों जला रहे हो ॥ ३३ ॥
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