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प्रथमं शतकम्
तुह विरहे चिरआरअ तिस्सा णिवडन्तवाहमइलेण । रइरहसिहरधरण व मुहेण छाहि विअ ण पत्ता ॥ ३४ ॥
[ तव विरहे चिरकारक तस्या निपतद्बाष्पमलिनेन । रविरथशिखरध्वजेनेव मुखेन च्छायैव न प्राप्ता ॥ ] हे देर करने वाले निर्मोही ! तुम्हारे वियोग में अविरल बहती हुई अश्रुधारा से मलिन उस विरहिणी के मुख पर सूर्य के रथ की ध्वजा के समान छाया ( सौन्दर्य, परछाई ) ही नहीं है ॥ ३४ ॥
दिअहं
कहेइ
दिअरस्स असुद्ध मणस्स कुलवहू णिअअकुड्डुलिहिआई । रामाणुलग्गसोमित्तिचरिआई ||३५|| कूलवधूर्ध्निजककुड्य लिखितानि । रामानुलग्नसौमित्रि चरितानि ॥ ]
कुलवधू देवर के मन का अपवित्र भाव समझकर दिन भर दीवार पर अंकित राम भक्त लक्ष्मण का चरित पढ़कर उसे सुनाया करती है ।। ३५ ।।
[ देवरस्याशुद्धमनसः दिवसं कथयति
चत्तरधरिणी पिअदंसणा अ तरुणी पउत्थपइआ अ । असई सअज्जिआ दुग्गआ अ ण हु खण्डिअं सीलं ॥ ३६ ॥
[ चत्वरगृहिणी प्रियदर्शना च तरुणी प्रोषितपतिका च । असतीप्रतिवेशिनी दुर्गता च न खलु खण्डितं शोलम् ॥ ]
उसका घर चौराहे पर है । देखने से अत्यन्त सुन्दर और तरुणी है । पति
परदेश में रहता है । पड़ोस में एक कुलटा रहती है । दरिद्रता के भार से दबी जा रही है, लेकिन शील पर धब्बा नहीं लगा है ।। ३६ ।।
पूरेण । कलम्बो ॥३७॥
[ जलावर्तभ्रमाकुलखण्डितकेसरो गिरिनद्या: पूरेण । दरमग्नोन्मग्ननिमग्नमधुकरो हियते कदम्बः ।। ]
तालूरभमा उखु डि अकेसरो दरवुड्डउवुडुणिबुडुमहुअरो
गिरिणईऍ हीरइ
पहाड़ी नदी के प्रवाह में कदम्ब का वृक्ष बहता चला जा रहा है । यद्यपि • उसका पराग - कोष आवर्तों के आघात से क्षीण हो चुका है
तथापि उसमें लिपटे
हुए लोभी भ्रमर पानी में कभी ऊपर आते हैं, कभी नीचे ॥ ३७ ॥
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