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________________ गाथासप्तशती अहिआअमाणिणो दुग्गअस्स छाहिं पिअस्स रखन्ती । णिअबन्धवाणं जूरइ धरिणी विहवेण पत्ताणं ॥३८॥ [ आभिजात्यमानिनो दुर्गतस्य छायां पत्यू रक्षन्ती । निजबान्धवेभ्यः क्रुध्यति गृहिणी विभवेनागच्छद्भयः ।।] आभिजात्य का गर्व रखने वाले दरिद्र पति की मर्यादा की रक्षा करती हुई गृहिणी अपने यहाँ ठाट-बाट से आने वाले जाति-बान्धवों पर भी रुष्ट हो जाती है ॥ ३८॥ साहीणे वि पिअअमे पत्ते वि खणे ण मण्डिओ अप्पा। ' दुग्गअपउत्थवइअं सअज्झिअं सण्ठन्वतीए ॥३९॥ [ स्वाधीनेपि प्रियतमे प्राप्तेपि क्षणे न मण्डित आत्मा। दुर्गतप्रोषितपतिका प्रतिवेशिनी संस्थापयन्त्या ॥] अपने प्रिय को वश में जान कर भी शोलवती नायिका ने उत्सव का दिन आने पर भी इसलिये शृंगार नहीं किया कि कदाचित् उसकी दरिद्रा प्रतिवेशिनी जिसका पति परदेश चला गया है-अधीर न हो जाय ।। ३९ ॥ तुज्झ वसइ ति हिअअं इमेहि दिट्ठो तुमं ति अच्छोहि । तुह विरहे किसिआई ति तीएँ अङ्गाई वि पिआइं ॥४०॥ [तव वसतिरिति हृदयमाभ्यां दृष्टस्त्वमित्यक्षिणी। ___तव विरहे कृशितानोति तस्या अङ्गान्यपि प्रियाणि ॥] __वह अपने हृदय को इसलिये प्यार करती है कि उसमें तुम्हारा निवास है, आँखों को इसलिये प्यार करती है कि उन्होंने तुम्हारे दर्शन किये हैं और शरीर अंगों को भी इसलिए प्यार करती है कि वे तुम्हारे विरह में कृश हो गये है ॥ ४० ॥ सब्भावणेहभरिए रत्ते रज्जिज्जइ त्ति जुत्तमिणं । अणहिअ उण हिअअं जं दिज्जइ तं जणो हसइ ॥४१॥ [सद्भावस्नेहभरिते रक्ते रज्यते इति युक्तमिदम् । अन्यहृदये पुनर्हृदयं यद्दीयते तज्जनो हसति ।।] स्नेह और सद्भावना पूर्ण एवं अनुरक्त व्यक्ति से प्रेम होना उचित है। जिसका मन अन्यत्र आसक्त हो चुका है, उससे प्रेम करने वाले का लोग उपहास करते हैं ॥ ४१ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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