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प्रथम शतकम् आरम्भन्तस्स धुआं लच्छी मरणं वि होइ पुरिसस्स । तं मरणमणारम्भे वि होइ लच्छी उण ण होइ ॥४२॥
[ आरभमाणस्य ध्रुवं लक्ष्मीमरणं वा भवति पुरुषस्य ।
तन्मरणमनारम्भेऽपि भवति लक्ष्मीः पुनर्न भवति ।। ] जो किसी कार्य को आरम्भ कर देता है उसको या तो लक्ष्मी को ही प्राप्ति होती है या मृत्यु की। जो किसी कार्य को आरम्भ ही नहीं करता मृत्यु तो उसकी भी अवश्य ही होती है परन्तु लक्ष्मी कभी भी प्राप्त नहीं होती ॥ ४२ ॥ विरहाणलो सहिज्जइ आसाबन्धेण वल्लहजणस्स । एकग्गामपवासो माए मरणं विसेसेइ ॥४३॥
[विरहानलः सह्यत आशाबन्धेन वल्लभजनस्य ।
एकग्रामप्रवासो मातर्मरणं विशेषयति ।।] मिलन की आशा से प्रेमो का विरह ताप तो सह लिया जाता है, किन्तु माँ! एक ही गांव में रहकर प्रवासी सा व्यवहार तो मरण से भी बढ़ कर है ॥ ४३ ॥
अक्खडइ पिआ हिअए अण्णं महिलाअणं रमन्तस्स । विट्ठ सरिसम्मि गुणे असरिसम्मि गुणे अईसन्ते ॥४४॥
[आस्खलति प्रिया हृदये अन्यं महिलाजनं रममाणस्य । ___ दृष्टे सदृशे गुणे असदृशे गुणे अदृश्यमाने ॥] अन्य महिला से रमण करने वाले युवक के मन में तुल्य गुणों को देखकर एवं विपरीत गुणों को न पाकर पूर्वानुभूत प्रियतमा की स्मृति आ ही जाती है ॥ ४४ ॥
णइऊरसच्छहे जोव्वणम्मि अइपवसिएसु दिअसेसु । अणिअत्तासु राईसु पुत्ति किं दड्ढमाणेण ॥४५॥ १. निम्नलिखित गाथा में यही भाव पदावली के अनुकरण के साथ व्यक्त हुआ है
दूरयरदेसपरिसंठियस्स पियसंगम महन्तस्स । आसाबन्धो च्चिय माणुसस्स परिरक्खए जीयं ॥
-गुणपाल मुनिकृत, जम्बूचरिय
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