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गाथासप्तशती [ नदीपूरसदृशे यौवने अतिप्रोषितेषु दिवसेषु ।
अनिवृत्तासु च रात्रिषु पुत्रि किं दग्धमानेन ॥] बेटी ! यह यौवन नदी के प्रवाह सा चंचल है तथा ये दिन और ये रातें फिर लौट कर नहीं आयेंगी । तुम मान क्यों करती हो ? ॥ ४५ ॥ कल्लं किल खरहिअओ पवसिइहि पिओत्ति सुण्णइ जणम्मि । तह बढ्ढ भअवइ णिसे जह से कल्लं विअ ण होइ ॥४६॥
[ कल्यं किल खरहृदयः प्रवत्स्यति प्रिय इति श्रूयते जने ।
तथा वर्धस्व भगवति निशे यथा तस्य कल्यमेव न भवति।।]मैंने सुना है कि मेरे पाषाण हृदय प्रियतम कल प्रयाण करेंगे। हे रात तुम बढो, इतना बढो कि सबेरा ही न हो ॥ ४६ ॥ होन्तपहिअस्स जाआ आउच्छणजीअधारणरहस्सं । पुच्छन्ती भमइ घरं घरेण पिअविरहसहिरीओ ॥४७॥ [ भविष्यत्पथिकस्य जाया आपृच्छन जीवधारणरहस्यम् ।
पृच्छन्ती भ्रमति गृहं गृहेण प्रियविरहसहनशोलाः ॥] 'मेरे प्रिय परदेश चले जायेंगे'-यह जान कर वह घर-घर जाकर विरह वेदना को सहने वाली विरहनियों से पूछती है-"जब गमनोद्यत प्राणेश मुझ से प्रयाण के लिये अनुमति लेने आयें हों तो क्या उस समय शरीर से बाहर निकलते हुए प्राणों को धारण करने का कोई उपाय है" ॥ ४७ ॥
अण्णमहिलापसङ्गं दे देव करेसु अह्म दइअस्स । पुरिसा एक्कन्तरसा ण हु दोषगुणे विआणन्ति ॥४८॥ [अन्यमहिलाप्रसङ्गं हे देव कुर्वस्माकं दयितस्य ।
पुरुषा एकान्तरसा न खलु दोषगुणौ विजानन्ति ।। ] मेरा भी पति अन्य महिलाओं में अनुरक्त हो जाय, क्योंकि एक ही नारी से प्रेम करने वाले को गुण-दोष का ज्ञान नहीं होता ॥ ४८ ॥
थो पि ण णीसरई मज्झण्णे उह सरीरतललुक्का । आअवभएण छाई वि पहिअ ता कि ण वीसमसि ॥४९॥ [स्तोकमपि न निःसरति मध्याह्न पश्य शरीरतललीना।
आतपभयेन च्छायापि पथिक तत्कि न विश्राम्यसि ॥ ]
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