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प्रथमं शतकम्
देखो. मध्यान्ह में आतप से भीत होकर शरीर से चिपटी हई छाया भी किंचित् बाहर नहीं निकलती । पथिक ! तुम विश्राम क्यों नहीं कर लेते ॥४९॥
सुहउच्छअं जणं दुल्लहं पि दूराहि अम्ह आणन्त । उअआरअ जर जीअं पि गेन्त ण कआवराहोसि ॥५०॥
[ सुखपृच्छकं जनं दुर्लभमपि दूरादस्माकमानयन् ।
उपकारक ज्वर जीवमपि नयन्न कृतापराधोऽसि ।। ] हे ज्वर ! तुम ने मेरा सुख-दुख पूछने वाले दुर्लभ व्यक्ति को भी दूर से बुला कर बड़ा ही उपकार किया है, इससे यदि मेरे प्राण भी ले लो तो भी तुम्हारा कुछ अपराध नहीं है ॥ ५० ॥
आमजरो मे मन्दो अहव ण मन्दो जणस्स का तन्ती। सुहउच्छअ सुहअ सुअन्ध अन्ध मा अन्धि छिवसु ॥५१॥
[आमो ज्वरो मे मन्दोऽथवा न मन्दो जनस्य का चिन्ता।
सुखपृच्छक सुभग सुगन्धगन्ध मा गन्धितां स्पृश ।। ] मेरा अजीर्णोत्पन्न ज्वर मन्द है या तीव्र, दूसरे लोग इसकी चिन्ता क्यों करते हैं ? कुशल पूछने वाले सुगन्धित सुभग ! तुम मेरे दुर्गन्धपूर्ण शरीर का. स्पर्श मत करना ॥ ५१ ॥ सिहिपिच्छलुलिअकेसे बेवन्तोरु विणिमोलिअद्धच्छि । दरपुरिसाइरि विसुमरि जाणसु पुरिसाणे जं दुःखं ॥५२॥
[शिखिपिच्छलुलितकेशे वेपमानोरु विनिमीलिततार्धाक्षि ।
ईषत्पुरुषायिते विश्रामशोले जानीहि पुरुषाणां यदुःखम् ।। 1 प्रिये ! मयूर पुच्छ के समान तुम्हारा केश पाश बिखर गया है । आँखें अर्द्ध मुकुलित हो रही हैं । तुम्हारे उरु कम्पित हो रहे हैं । तुम श्रान्त होकर विश्राम कर रही हो । थोड़ी देर में ही पुरुषों का अभिनय करके तुमने जान लिया होगा कि उन्हें कितना परिश्रम करना पड़ता है ।। ५२ ॥ पेम्मस्स विरोहिअसंधिअस्स पच्चक्खदिविलिअस्स । उअअस्स व ताविअसोअलस्स विरसो रसो होइ ॥५३॥ [प्रेम्णो विरोधितसंधितस्य प्रत्यक्षदृष्टव्यलोकस्य । उदकस्येव तापितशोतलस्य विरसो रसो भवसि ॥]
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