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गाथासप्तशती
बेटी ! तुम्हारा शृंगार अपूर्ण है तो भी उत्कंठित प्रेमी के पास चलो जाओ, अन्यथा उत्कंठा शिथिल हो जाने पर तुम उसे प्रिय न लगोगी ॥ २१ ॥
आअरपणामिओटु अघडिअणासं असंहअणिडालं । वण्णधिअतुप्पमुहिए तीए परिउम्बणं भरिमो ॥२२॥
[ आदरप्रणामितौष्ठमघटितनासमसंहतललाटम् ।
वर्णघृतलिप्तमुख्यास्तस्याः परिचुम्बनं-स्मरामः ॥ ] हरिद्रामिश्रित घृतसे लिप्त मुखवाली प्रिया ने आदर से अपना ओष्ठ स्वयं झुका दिया था, नासिका और ललाट को संयुक्त न करते हुए तब उसका जो चुम्बन किया था उसका स्मरण करता हूँ ॥ २२ ॥
अण्णासआई देन्ती तह सुरए हरिसविअसिअकवोला । गोसे वि ओणअमुही अह सेत्ति पिआं ण सदहिमो ॥२३॥
[आज्ञाशतानि ददती तथा सुरते हर्षविकसितकपोला।
प्रातरप्यवनतमुखी इयं सेति प्रियां न श्रद्दध्मः ।।] - रति के समय प्रफुल्ल मुख से जो सैकड़ों सूझाव देती थी उसी नतवदना प्राणेश्वरी को प्रातःकाल लाज में गड़ी हुई देखकर विश्वास नहीं होता कि वह वही है ॥ २३ ॥
पिअविरहो अप्पिअदसणं अ गरुआई दो वि दुक्खाई। जीएँ तुमं कारिज्जसि तीएँ णमो आहि जाईएँ ॥२४॥
[प्रियविरहोऽप्रियदर्शनं च गुरुके द्वे अपि दुःखे ।
यया त्वं कार्यसे तस्यै नम आभिजात्यै ॥] प्रिय का वियोग और अप्रिय का दर्शन-ये संसार के दो बड़े दुःख जिसके कारण मुझे भोगने पड़ते हैं, मैं तुम्हारी उस कुलीनता को नमस्कार करती हूँ ॥ २४ ॥
एक्को वि कह्नसारो ण देइ गन्तु पआहिणवलन्तो। कि उण बाहाउलिअं लोअणजुअलं पिअअमाए ॥२५॥
[एकोऽपि कृष्णसारो न ददाति गन्तुं प्रदक्षिणं वलन् । किं पुनर्बाष्पाकुलितं लोचनयुगलं प्रियतमायाः॥]
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