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प्रथमं शतकम्
" जब प्रवासी लौट कर आयेंगे तो मैं रूठ जाऊँगी और वे मुझे मनायेंगे ।” प्रियतम के विषय में किसी की ही ऐसी मधुर कल्पनायें सत्य हुआ करती हैं ।। १७ ।।
दुग्गअकुडुम्बअट्ठी कहँ णु मए धोइएण सोढव्वा । दसिओसरन्त सलिलेण उअह रुणं व पडएण ॥ १८ ॥
[ दुर्गतकुटुम्बा कृष्टिः कथं नु मया धौतेन सोढव्या । दशापसरत्सलिलेन पश्यत रुदितमिव पटकेन ॥ ]
देख लो ! धुल जाने पर दरिद्र कुटुम्ब की खींचा तानी मैं कैसे सह पाऊँगा - यह सोच कर मानों वस्त्र किनारों से चूते हुए जल के व्याज से रो पड़ा है ॥ १८ ॥
कोसॅम्बकि सलअवण्णअ-तण्णअ उष्णामिएहिँ कण्णेहि । हिअअअं घरं वच्चमाण धवलत्तणं पाव ॥१९॥
[ कोशा किसलयवर्णक तक उन्नामिताभ्यां कर्णाभ्याम् । हृदयस्थितं गृहं व्रजन्धवलत्वं प्राप्नुहि ॥ ]
हे वत्स ! ( बछड़ा ) तुम्हारा वर्ण नूतन आम्र पल्लव के तुल्य है । मन चाहे घर में दोनों कान उठाये चले जा रहे हो, श्रेष्ठ बैल बन जाओ ( उजले बन जाओ ) ॥ १९ ॥
अलिअपसुत्तअ विणिमीलिअच्छ दे सुहअ मज्झ ओआसं । गण्डपरिउम्बणापुलइअङ्ग ण पुणो चिराइस्सं ॥ २० ॥
[ अलीकप्रसुप्तक विनिमीलिताक्ष हे सुगभ ममावकाशम् । गण्डपरिचुम्बनापुलकिताङ्ग न पुनश्चिरयिष्यामि ॥ ]
कपोल का चुम्बन करते ही तुम्हारे अंग पुलकित हो गये हैं । तुमने सोने का बहाना कर अपने नेत्र बन्द कर लिये हैं । प्राणेश ! मुझे लेटने दो, अब फिर कभी देर न होगी ॥ २० ॥
असमत्तमण्डना विअ वच्च घरं से सकोउहल्लस्स । बोलाविअहलहल अस्स पुत्ति चित्ते
ण
सकौतूहलस्य ।
[ असमाप्तमण्डनैव व्रज गृहं तस्य व्यतिक्रान्तौत्सुक्यस्य पुत्रि चित्ते न लगिष्यसि ॥ ]
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लग्गिहिसि ॥२१॥
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