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________________ गाथासप्तशती रसोई वनाते समय कालिख-लगा हुआ हाथ छु जाने से बेचारी गृहिणी के मुख की दशा चन्द्रमा जैसी हो गई। यह देख कर उसके पति को हंसी आ गई ॥ १३ ॥ रन्धणकम्मणिउणिए मा जूरसु, रत्तपाडलसुअन्धं । मुहमारु पिअन्तो धूमाइ सिही ण पज्जलइ ॥१४॥ [ रन्धकर्मनिपुणिके मा क्रुध्यस्व रक्तापाटलसुगन्धम् । __मुखमारुतं पिबन्धूमायते शिखी न प्रज्वलति ।। ] अरी रसोई बनाने वाली ! यदि बार-बार फूंकने पर भी धुआँ देकर अग्न्ि नहीं जल रहा है, तो तुम उस पर कोप मत करो । क्योंकि यदि वह शीघ्र जल जायेगा, तो उसे रक्तपाटल सा सुगन्धित तुम्हारा मुख-मारूत पीने को कहाँ मिलेगा ? ॥ १४ ॥ किं किं दे पडिहासइ सहोहिं इअ पुच्छिआएँ मुद्धाए । पढमुग्गअदोहणीएँ णवरं दइ गआ दिट्ठी ॥१५॥ [किं किं ते प्रतिभासते सखीभिरिति पृष्टाया मुग्धायाः। प्रथमोद्गतदोहदिन्याः केवलं दयितं गता दृष्टिः ॥] प्रथम बार गर्भ धारण करने वाली मुग्धा से उसकी सहेलियों ने पूछा"तुम्हारी क्या इच्छा है” तो उसकी दृष्टि केवल पति की ओर दौड़ गई ॥ १५ ॥ अमअमअ गुअणसेहर रअणीमुहतिलअ चन्द दे छिवसु । छित्तो जोहिँ पिअअमो ममं पि तेहिं विअ करेहि ॥१६॥ [ अमृतमय गगनशेखर रजनीमुखतिलक चन्द्र हे स्पृश । स्पृष्टो यैः प्रियतमो मामपि तैरेव करैः।। हे रजनी के मुखतिलक ! गगन शेखर चन्द्र ! तुम अमृतमय हो। मेरा स्पर्श अपने उन्हीं करों (किरणों ) से करना, जिनसे मेरे प्रियतम का स्पर्श किया है ॥ १६ ॥ एहिइ सो वि पउत्थो अहं अ कुपेज्ज सो वि अणुणेज्ज । इअ कस्स वि फलइ मणोरहाण माला पिअअमम्मि ॥१७॥ [ एष्यति सोऽपि प्रोषितोऽहं च कुपिष्यामि सोऽप्यनुनेष्यति । इति कस्या अपि फलति मनोरथानां माला प्रियतमे ॥] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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