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________________ प्रथमं शतकम् [किं रोदिष्यवनतमुखी धवलायमानेषु शालिक्षेत्रेषु । हरितालमण्डितमुखी नटीव शणवाटिका जाता ॥] आर्ये ! शालि क्षेत्रों के पक जाने पर मुंह झुकाये रो क्यों रही हो ? हरिताल से लिप्त मुख वाली नटी के समान यह सन की वाटिका तो प्रस्तुत ही है ॥ ९॥ सहि ईरिसिम्विअ गई मा रुव्वसु तंसवलिअमुहअन्द । एआण वालवालुङ्कितन्तुकुडिलाण पेम्माणं ॥१०॥ [ सखि ईदृश्येव गतिर्मा रोदोस्तिर्यग्वलितमुखचन्द्रम् । __ एतेषां बालकर्कटीतन्तुकुटिलानां प्रेम्णाम् ॥ ] सखी ! अपना चन्द्र सा मनोहर मुख फेर कर रूदन मत करो, ककड़ी के क्षीण तन्तुओं की भाँति कुटिल प्रणय की ऐसी ही सुकुमार गति होती है ॥ १० ॥ पाअपडिअस्स पइणो पुट्टि पुत्ते समारुहत्तम्मि । दढमण्णुदुण्णिआएँ वि हासो धरिणीएं गेक्कन्तो ॥११॥ [पादपतितस्य पत्युः पृष्ठं पुत्रे समारुहति । दृढमन्युदूनाया अपि हासो गृहिण्या निष्क्रान्तः । ] चरणों पर गिरे हुए पति की पीठ पर जब पुत्र चढ़ गया, तो दृढ़ कोप से तमतमाती हुई नायिका के अधरों पर भी हँसी आ गई ॥ ११ ॥ सच्चं जाणइ दट्टुं सरिसम्मि जणम्मि जुज्जए राओ। मरउ ण तुमं भणिस्सं मरणं वि सलाहणिज्जं से ॥१२॥ [सत्यं जानाति द्रष्टुं सदृशे जने युज्यते रागः। म्रियतां न त्वां भणिष्यामि मरणमपि श्लाघनीयं तस्याः।।] वह सत्य को देखना जानती है। सहृदय व्यक्ति पर अनुरक्त होना उचित ही है। मर रही है तो मरे। मैं तुम से कुछ कह नहीं सकती क्योंकि उसका मर जाना भी श्लाध्य है ।। १२ ॥ धरणीएँ महाणसकम्मलग्गमसिमलिइएण हत्थेण । छित्तं मुहं हसिज्जइ चन्दावत्थं गधे पइणा ॥१३॥ [ गृहिण्या महानसकर्मलग्नमषीमलिनितेन हस्तेन । स्पृष्टं मुखं हस्यते चन्द्रावस्थां गतं पत्या ।। ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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