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गाथासप्तशती
धावs विअलिअधम्मिल्लसिचअ संजमणवावडकरग्गा ।
चन्दिलभअविवलाअन्तडिम्भपरिमग्गिणी
घरिणी ।। ९१ ॥
[ धावति विगलितधम्मिल्ल सिचयसंयमनव्यापृत कराना । चन्दिलभयविपलायमानडिम्भपरिमार्गिणी गृहिणी ॥ ]
जिसका हाथ छूटे हुये केशपाश और शिथिल वस्त्रों को सँभालने में संलग्न है, वह गृहिणी नाई के भय से भागने वाले बालक को ढूंढती हुई दौड़ रही है ।। ९१ ॥
जह जह उव्वह वहू णवजोव्वणमणहराइँ अङ्गाई ।
तह तह से तणुआअ मज्झो दइओ अ पडिवक्खो ॥ ९२ ॥ [ यथा यथोद्वहते वधूर्नवयौवन मनोहराण्यङ्गानि । तथा तथा तस्यास्तनूयते मध्यो दयितश्च प्रतिपक्षः ॥ ]
बहू जैसे-जैसे युवावस्था के मनोहर अंगों को धारण करती है, वैसे-वैसे उसका पति, कटि और सपत्नियां क्षीण होने लगती हैं ।। ९१ ।।
जह जह जरापरिणओ होइ पई दुग्गओ विरूओ वि । कुलवालिआण तह तइ अहिअअरं वल्लहो होइ ॥ ९३ ॥
[ यथा यथा जरापरिणतो भवति पतिदुर्गती विरूपोऽपि । कुलपालिकानां तथा तथाधिकतरं वल्लभो भवति ॥ ]
दरिद्र और कुरूप पति भी जैसे-जैसे वृद्ध होता जाता है वैसे-वैसे कुलांगनाओं को अधिक प्रिय होता जाता है ।। ९३ ।।
एसो मामि जवाणो वारंवारेण जं अडअणाओ ।
गिम्हे गामेक्कवडोअअं व किच्छेण
पावन्ति ॥ ९४ ॥
यमसत्यः ।
[ एष मातुलानि युवा वारंवारेण ग्रीष्मे ग्रामैकवटोदकमिव कृच्छ्रेण प्राप्नुवन्ति ॥ ]
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मामी ! यह वही युवक है, जिसे ग्रीष्म में छायादार बरगद के नीचे एक - मात्र कुएँ के पानी के समान असती युवतियाँ बारी-बारी से कठिनाई से प्राप्त कर पाती हैं ।। ९४॥
गामवडस्स पिउच्छा आवण्डुमुहीणं पण्डुरच्छाअं । हिअएण समं असईणं पडइ वाआहअं पत्तं ॥ ९५ ॥
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