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________________ ७० गाथासप्तशती धावs विअलिअधम्मिल्लसिचअ संजमणवावडकरग्गा । चन्दिलभअविवलाअन्तडिम्भपरिमग्गिणी घरिणी ।। ९१ ॥ [ धावति विगलितधम्मिल्ल सिचयसंयमनव्यापृत कराना । चन्दिलभयविपलायमानडिम्भपरिमार्गिणी गृहिणी ॥ ] जिसका हाथ छूटे हुये केशपाश और शिथिल वस्त्रों को सँभालने में संलग्न है, वह गृहिणी नाई के भय से भागने वाले बालक को ढूंढती हुई दौड़ रही है ।। ९१ ॥ जह जह उव्वह वहू णवजोव्वणमणहराइँ अङ्गाई । तह तह से तणुआअ मज्झो दइओ अ पडिवक्खो ॥ ९२ ॥ [ यथा यथोद्वहते वधूर्नवयौवन मनोहराण्यङ्गानि । तथा तथा तस्यास्तनूयते मध्यो दयितश्च प्रतिपक्षः ॥ ] बहू जैसे-जैसे युवावस्था के मनोहर अंगों को धारण करती है, वैसे-वैसे उसका पति, कटि और सपत्नियां क्षीण होने लगती हैं ।। ९१ ।। जह जह जरापरिणओ होइ पई दुग्गओ विरूओ वि । कुलवालिआण तह तइ अहिअअरं वल्लहो होइ ॥ ९३ ॥ [ यथा यथा जरापरिणतो भवति पतिदुर्गती विरूपोऽपि । कुलपालिकानां तथा तथाधिकतरं वल्लभो भवति ॥ ] दरिद्र और कुरूप पति भी जैसे-जैसे वृद्ध होता जाता है वैसे-वैसे कुलांगनाओं को अधिक प्रिय होता जाता है ।। ९३ ।। एसो मामि जवाणो वारंवारेण जं अडअणाओ । गिम्हे गामेक्कवडोअअं व किच्छेण पावन्ति ॥ ९४ ॥ यमसत्यः । [ एष मातुलानि युवा वारंवारेण ग्रीष्मे ग्रामैकवटोदकमिव कृच्छ्रेण प्राप्नुवन्ति ॥ ] Jain Education International मामी ! यह वही युवक है, जिसे ग्रीष्म में छायादार बरगद के नीचे एक - मात्र कुएँ के पानी के समान असती युवतियाँ बारी-बारी से कठिनाई से प्राप्त कर पाती हैं ।। ९४॥ गामवडस्स पिउच्छा आवण्डुमुहीणं पण्डुरच्छाअं । हिअएण समं असईणं पडइ वाआहअं पत्तं ॥ ९५ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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