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तृतीयं शतकम् [न विना सद्भावेन गृह्यते परमार्थज्ञो लोकः ।
को जीर्णमार्जारं काजिकया प्रतारयितुं शक्नोति ॥] वास्तविकता के बिना जानकार व्यक्ति कभी अनुरक्त नहीं होते, कौन बूड़ी बिल्ली को कांजी से धोखे में डाल सकता है ॥ ८६ ॥ रण्णाउ तणं रणाउ पाणिअं सव्वजं सअंगाहं । तह वि मआण मईण अ आमरणन्ताई पेम्माइं ॥ ७ ॥ [अरण्यात्तृणमरण्यात्पानोयं सर्वतः स्वयंग्राहम् ।
तथापि मृगाणां मृगीणां चामरणान्तानि प्रेमाणि ।।] यद्यपि हरिन और हरिनियों को वन से ही तृण और वन से ही जल स्वतः उपलब्ध हो जाते हैं, फिर भी उनके प्रेम का आमरण अन्त नहीं होता ॥ ८७॥ तावमवणेइ ण तहा चन्दणपङ्को विकामिमिहुणाणं । जह दूसहे वि गिम्हे अण्णोण्णालिङ्गणसुहेल्लो ॥ ८॥ [ तापमपनयति न तथा चन्दनपङ्कोऽपि कामिमिथुनानाम् ।
यथा दुःसहेऽपि ग्रीष्मे अन्योन्यालिङ्गन सुखकेलिः ।।] पोष्म में विलासी दम्पति का ताप चन्दन भी उतना नहीं दूर कर पाता, जितना परस्पर आलिंगन को सुखमय क्रीडा ।। ८८ ॥ तुप्पाणणा किणो चिट्ठसि त्ति पडिपुच्छिआएँ वहुआए। विउणावेअिजहणत्थलाइ लज्जोणअं हसि ॥ ८९ ॥
[घृतलिप्तानना किमिति तिष्ठसीति परिपृष्टया बध्वा ।
द्विगुणावेष्टितजघनस्थलया लज्जावनतं हसितम् ॥] तुमने मुख में घृत क्यों लगा लिया है" यह पूछने पर अपनी जाँघों को और भी छिपाती हुई लजीली बहू ने सिर झुकाकर मुस्करा दिया॥ ८९ ॥ हिअअ च्चेअ विलोणो ण साहिओ जाणिऊण घरसारं । बान्धवदुव्वअणं विअ दोहलंओ दुग्गअवहूए ॥ ९०॥
[हृदय एव विलोनो न कथितो ज्ञात्वा गृहसारम् ।
बान्धवदुर्वचनमिव दोहदो दुर्गतवध्वा ।।] ___ घर की दोन दशा जानकर दरिद्र को गभिणी वधू का मनोरथ हृदय में ही विलीन हो गया, बन्धुओं को खलने वाली वाणी के समान वह बाहर न 'निकला ॥ ९ ॥
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