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________________ गाथासप्तशती फलसंपत्तीम समोणआई तुझाई फलविपत्तीए । हिसआइ सुपुरिसाणं महातरूणं व सिहराई ॥ १२ ॥ [ फलसंपत्त्या समवनतानि तुङ्गानि फलविपत्या । हृदयानि सुपुरुषाणां महातरूणामिव शिखराणि ।। ] सत्पुरुषों का हृदय विशाल वृक्ष की शाखा के समान फल-संपत्ति में अवनत' एवं फलहीन होने पर उन्नत हो जाता है ॥ ८२ ॥ आसासेइ परिअणं परिवत्तन्तीअ पहिअजाआए । णित्थाणुवत्तणे वलिअहत्थमुहलो वलअसद्दो ॥ ८३ ।। [आश्वासयति परिजनं परिवर्तमानायाः पथिकजायायाः। निःस्थामवर्तने वलितहस्तमुखरो वलयशब्दः ।। विरह-वेदना में स्थाणु (खम्भे) के समान निश्चेष्ट पड़ी हुई पथिक प्रिया जब करवट बदलतो है तब उसके स्पन्दित हाँथों की कंकण-ध्वनि सखियों को पाश्वस्त कर देती है ॥ ८३ ॥ तुझो चिज होइ मणो मणंसिणो अन्तिमासु वि दसासु । अत्थमणम्मि वि रइणो किरणा उद्धं चिअ स्फुरन्ति ॥ ८४॥ [तुङ्गमेव भवति मनो मनस्विनोऽन्तिमास्वपि दशासु । ___ अस्तमनेऽपि रवेः किरणा ऊर्ध्वमेव स्फुरन्ति ।।] अन्तिम अवस्था में भी मनस्वी पुरुषों का मन उन्नत ही बना रहता है, क्योंकि सूर्य की किरणे अन्तिम बेला में भी ऊपर को स्फुरित होती है । ८४ ॥ पोट्टे भरन्ति सउणा वि माउआ अप्पणो अणुविरगा। विहलुखरणसहावा हुवन्ति जइ के वि सप्पुरिसा ॥ ५ ॥ [उदरं बिभ्रति शकुना अपि हे मातर आत्मनोऽनुद्विग्नाः। विह्वलोद्धरणस्वभावा भवन्ति यदि केऽपि सत्पुरुषाः ।। ] मां ! अपना पेट तो पक्षी भी सरलता से भर लेते हैं, परन्तु विपन्न प्राणियों का उद्धार करना ही जिनका स्वभाव बन गया है, वे सत्पुरुष बहुत ही कम है॥८५॥ ण विणा सम्भावेण ग्घेप्पइ परमत्थजाणुओ लोओ। को जुण्णमजरं कञ्जिएण वेआरिलं तरइ ॥८६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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