________________
तृतीयं शतकम्
६७ अनुनय से प्रसन्न होने पर भी वह सुन्दरी देर तक तुम्हारे अपराध गिनती रही। जब गिनते-गिनते दोनों हाथों की अंगुलियाँ समाप्त हो गई तब देर तक रोती रही ॥ ७७ ॥
सेअच्छलेण पेच्छह तणुए अङ्गम्मि से अमाअन्तं ।। लावण्णं ओसरइ व तिवलिसोवाणवत्तीए ॥ ७८ ॥ [ स्वेदच्छलेन पश्यत तनुकेऽङ्ग तस्या अमात् ।
लावण्यमपसरतीव त्रिवलोसोपानपंक्तिभिः ॥ ] तन्वंगी नायिका के शरीर में न समाता हुआ सौन्दर्य मानों स्वेद के व्याज से 'त्रिवली की सोपान-पंक्ति द्वारा नीचे उतर रहा है ।। ७८ ॥
देव्वाअत्तम्मि फले कि कीरइ एत्ति पुणो भणिमो। कङ्केल्लिपल्लवाणं ण पल्लवा होन्ति सारिच्छा ॥७९॥
[ देवायत्ते फले कि क्रियतामियत्पुनर्भणामः ।
कङ्कल्लिपल्लवानां न पल्लवा भवन्ति सदृशाः ॥] __ क्या किया जाय ? फल तो देवाधीन है परन्तु मैं इतना कहे देती हैं कि अन्य वृक्षों के पल्लव अशोक के पल्लवों की समानता नहीं कर सकते ॥ ७९ ॥ धुअइ व्व मअकलङ्कं कवोलपडिअस्स माणिणी, उअह !। अणवरअवाहजलभरिअणअणकलसेहिं चन्दस्स ॥ ८०॥
[धावतीव मृगकलकं कपोलपतितस्य मानिनी पश्यत ।
अनवरतबाष्पजलभृतनयनकलशाभ्यां चन्द्रस्य ।] देखो, वह मानिनी मानों अनवरत अश्रु -सलिल पूर्ण नेत्र कलशों से कपोल पर प्रतिबिंबित मृगांक का कलंक धो रही है । ८० ॥ गन्धेण अप्पणो मालिआणे णोमालिआ ण फुट्टिहइ । अण्णो को वि हआसइ मसलो परिमलुग्गारो ॥ ८१ ॥ [ गन्धेनात्मनो मालिकानां नवमालिका त च्युता भविष्यति ।
अन्याःकोऽपि हतशाया मांसलः परिमलोद्गारः ॥] पुष्प-मालाओं में अपने गन्ध के कारण नवमालिका का स्थान न्यून नहीं हो सकता क्योंकि उस मुंहजलो का परिमल-कोष हो कुछ और है ।। ८१ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org