SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीयं शतकम् [ ग्रामवटस्य पितृष्वस आपाण्डुमुखीनां पाण्डुरच्छायम् । हृदयेन सममसतीनां पतति वाताहतं पत्रम् ॥ ] फूफी ग्राम्य वट के पीले पत्ते वायु से आहत होकर पाण्डु वदना पुश्चलियों 'हृदय के साथ नोचे गिर रहे हैं ।। ९५ ।। के पेच्छs अलद्धलक्खं दीहं णीससइ सुण्णअं हसइ । जह जम्पइ अफुडत्थं तह से हिअअट्ठिअं किंपि ॥ ९६ ॥ [ पश्यत्यलब्धलक्ष्यं दीर्घं निःश्वसिति शून्यं हसति । यथा जल्पल्यस्फुटार्थं तथा तस्या हृदयस्थितं किमपि ॥ ] यह सुन्दरी लक्ष्यहीन नेत्रों से देखती है । दीर्घ निःश्वास लेती है | हँसती है । अर्थहीन प्रलाप करती है । अतः इसके हृदय में कुछ होगा ॥ ९६ ॥ ७१ [ हृदयेप्सितस्य दीयतां तनूभवन्तों न पश्यथ पितृष्वसः । हृदयेप्सितोऽस्माकं कुतो भणित्वा मोहं गता कुमारी ॥ ] गहबइ गओम्ह सरणं रक्खसु एअं त्ति अडअणा भणिरी । सहसागअस्स तुरिअं पणो व्विअ जारमध्पेइ ।। ९७ ।। [ गृहपते गतोऽस्माकं शरणं रक्षैनमित्यसती भणित्वा । सहसागतस्य त्वरितं पत्युरेव जारमर्पयति ॥ ] "गृहस्वामी ! यह हमारी शरण में आया है, इसकी रक्षा कीजिये" यह कह कर व्यभिचारिणी युवती ने सहसा आगये पति के हाथों में जार को सौंप दिया ।। ९७ ।। में हिअअट्ठिअस्स दिज्जउ तणुआअन्ति ण पेच्छह पिउच्छा ? । हिअअट्टिओम्ह कंतो भणिउ मोहं गआ कुमरी ॥ ९८ ॥ शून्य अवश्य Jain Education International "फूफी ! देख नहीं रही हो ? यह कितनी दुबली होती जा रही है । जो इसके हृदय में बस गया है, उसी से इसका विवाह कर दो ।" यह सुनते ही "हम कुमारियों के हृदय में कोई कैसे बसेगा ।" यह कह कर वह कन्या मूच्छित हो गई ।। ९८ ॥ For Private & Personal Use Only खिणस्स उरे पइणी ठवेइ गिम्हावरण्हरमिअस्स । ओलं गलन्तकुसुमं ण्हाणसुअन्धं चिउरभारं ॥ ९९ ॥ www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy