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________________ गाथासप्तशती [खिन्नस्योरसि पत्युः स्थापयति ग्रोष्मापराहरमितस्य । आद्रं गलत्कुसुमं स्नानसुगन्धं चिकुरभारम् ॥] जिसके पुष्प विगलित हो गये थे, जो स्नान से आर्द्र एवं सुगन्धित था, सुन्दरी बघ अपना वही केशपाश ग्रीष्म के अपराह्न में रमण से थके हुए प्रिय के वक्ष पर फैला देती है ॥ ९९ ॥ अह सरदन्तमण्डलकवोलपडिमागओ मअच्छोए । अन्तो सिन्दुरिअसङ्खवत्तकरणिं वहइ चन्दो ॥१०॥ [ असौ सरसदन्तमण्डलकपोलप्रतिमागतो मृगाक्ष्याः। अन्तः सिन्दुरितशङ्खपात्रसादृश्यं वहति चन्द्रः ।।] मृगनयनी के कपोल पर अंकित मण्डलाकार दशनलेखा में बिम्बित चन्द्रमा उस शंख पात्र-सा प्रतीत होने लगता है, जिसके भीतर सिन्दूर लगा हो ॥१०॥ रसिअजणहिअअदइए कइवच्छलपमुहसुकइणिम्मअए । सत्तसअम्मि समत्तं तीअं गाहास एअं॥१०१॥ [ रतिकजन हृदयदयिते कविवत्सलप्रमुखसुकविनिमिते । सप्तसतके समाप्तं तृतीयं गाथाशतकमेतत् ।। ] जिनमें कविवत्सल हाल का प्रमुख स्थान है, उन कवियों द्वारा बनाये हुए रसिकों को प्यारे सप्तशतक का तृतीय शतक समाप्त हो गया ॥१०१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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