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चतुर्थ शतकम्
अह अह आउदो अज्ज कुलहराओ त्ति छेन्छई जारं । सहसागअस्स तुरिअं पणो कण्ठं मिलावेइ ॥ १ ॥
[ असावस्माकमागतोऽद्य कुलगृहादित्यसतो जारम् । सहसागतस्य त्वरितं पत्युः कण्ठे लगयति ॥ ]
'ये आज ही हमारे पिता जी के यहाँ से पधारे हैं' कह कर व्यभिचारिणी पत्नी अपने प्रेमी को सहसा आये हुए पति के गले मिलवा देती है ॥ १ ॥
पुसिआ अण्णाहरणेन्दणील किरणाहआ ससिमऊहा । माणिणिवअणम्मि सकज्जलंसुसङ्काइ दइएण ॥ २ ॥
[ प्रोञ्छिताः कर्णाभरणेन्द्रनील किरणाहताः शशिमयूखाः । मानिनीवदने सकज्जलाश्रुशङ्कया दयितेन । ]
मानिनी प्रिया के कर्णाभरण में खवित नील मणि की प्रभा से मिली हुई चन्द्रमा की किरणों को उसके आनन पर कज्जल मिश्रित अश्रु की आशंका से पति ने पोंछ दिया ॥ २ ॥
एहमेत्तम्मि जए सुन्दर महिलासहस्सभरिए वि ।
अणुहरइ णवर तिस्सा वामद्धं दाहिणस्स ॥ ३ ॥
[ एतावन्मात्रे जगति सुन्दर महिलासहस्रभूतेऽपि । अनुहरति केवलं तस्या वामार्धं दक्षिणार्धस्य ॥ ]
सहस्रों सुन्दरी महिलाओं से भरे हुए इतने बड़े जगत् में भो उसका वामपार्श्वं केवल उसी के दक्षिण पार्श्व के समान है ॥ ३ ॥
जह जह वाएइ पिओ तह तह णच्चामि चञ्चले पेम्मे । वल्लो वलेइ अङ्गं सहावथद्वे वि रुक्खम्मि ॥ ४ ॥
[ यथा यथा वादयति प्रियस्तथा तथा नृत्यामि चञ्चले प्रेम्णि । वल्लो वलयत्यङ्गं स्वभावस्तब्धेऽपि वृक्षे
॥ ]
प्रिय जैसे - जैसे बजाता है, मैं वैसे-वैसे प्रेम से चंचल होकर नाचती हूँ । लता - स्वभावतः स्तब्ध वृक्ष से लिपट जाती है ॥ ४॥
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