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________________ गाथासप्तशती दुक्खेहिँ लम्भइ पिओ लद्धो दुक्खेहिँ होह साहीणो । लद्धो वि अलद्धो विअ जड़ जह हिअअं तत ण होइ ॥ ५ ॥ ७४ [ दुःखैर्लभ्यते प्रियो लब्धो दुःखैर्भवति स्वाधीनः । लब्धोऽप्यलब्ध एव यदि यथा हृदयं तथा न भवति ॥ ] प्रिय दुःख से ही उपलब्ध होता है और मिलने पर कठिनता से वशीभूत होता है । यदि कहीं हृदय के अनुकूल न हुआ तो मिलना न मिलने के समान जाता है ॥ ५ ॥ roat अणुणअसुहकङ्खिरीअ अलंअ कअ कुणन्तीए । सरलसहावो वि पिओ आवणअमग्गं बलण्णीओ ॥ ६ ॥ [ कष्टमनुनयसुखकाङ्क्षणशीलयाकृतं कृतं कुर्वत्या । सरलस्वभावोऽपि प्रियोऽविनयमार्ग बलान्नोतः ॥ | हाय ! अनुनय-सुख की आकांक्षा करने वालो मैंने न किये हुए अपराधों का भी आरोप कर सरल स्वभाव पति को हठात् कुमार्ग पर लाकर खड़ा कर दिया ॥ ६॥ हत्थे अ पाए अ अङ्गुलिगणणाइ अइगआ दिअहा । एहि उण केण गणिज्जउ त्ति भणेउ रुअइ मुद्धा ॥ ७ ॥ [ हस्तयोश्च पादयोश्चाङ्गुलिगणनयातिगता दिवसाः । इदानीं पुनः केन गण्यतामिति भणित्वा रोदिति मुग्धा ॥ ] "हाथों और पैरों की अँगुलियाँ गिन गिनकर मैंने आज तक विरह के दिन बिताये, अब कैसे गिनू ?" यह कहकर मुग्धा रो पड़ो ॥ ७ ॥ फोरमुहसच्छ्हेहिँ रेहइ वसुहा पलासकुसुमेहि । बुद्धस्स चलणधन्दणपडिएहिँ व भिक्खुसंघेहिँ ॥ ८ ॥ [ कीरमुखसदृक्षै राजते वसुधा पलाशकुसुमैः । बुद्धस्य चरणवन्दनपतितैरिव भिक्षुसंघैः ॥ ] बुद्ध के चरणों की वन्दना के लिये गिरे हुए भिक्षु संघ की भांति यह पृथ्वी शुकों की चोंच के तुल्य पलाश - पुष्पों से सुशोभित हो रही है ॥ ८ ॥ जं जं पिहुलं अङ्गं तं तं जाअं किसोअरि किसं ते । जं जं तणुअं तं तं वि णिट्ठअं किं त्थ माणेण ॥ ९ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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