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चतुर्थं शतकम्
[ यद्यत्पृथुलमङ्गं तत्तज्जातं कृशोदरि कृशं ते । यद्यत्तनुकं तत्तदपि निष्ठितं किमत्र मानेन ॥ ]
कृशोदरि ! तुम्हारे जो अंग स्थूल थे, वे कुश हो गये हैं और जो कृश थे, वे भी शतर हो गये हैं । अब मान से क्या लाभ है ? ।। ९ ।।
ण गुणेण हीरइ जणो होरइ जो जेण भाविओ तेण । मोत्तूण पुलिन्दा मोत्तिआइँ गुज्जाओं गेह्णन्ति ॥ १० ॥ [ न गृणेन ह्रियते जनो ह्रियते यो येन भावितस्तेन । मुक्त्वा पुलिन्दा मोक्तिकानि गुञ्जा गृह्णन्ति ॥ ]
कोई किसी के गुणों पर मोहित नहीं होता । जिस पर जिसका अनुराग हो जाता है, वह उसी के वश में हो जाता है । वनवासी पुलिन्द मुक्ता का परित्याग कर गुंजा को ही धारण करते हैं || १० |
लङ्कालआणं पुत्तअ वसन्तमासेक्कलद्धपसराणं । आपीअलोहिआणं वीहेइ जणे पलासाणं ॥ ११ ॥
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[ लङ्कालयानां पुत्रक वमन्तमासैकलब्धप्रसराणाम् । आपीतलोहितानां बिभेति जनः पलाशानाम् ॥ ]
केवल वसन्त में फैलने वाले, डाली पर खिले, पीले और लाल पलाश - पुष्पों से वियोगी भयभीत हो जाते हैं ।। ११ ।।
द्वितीय अर्थ
जो वसा, आंत और मांस खाकर खूब मोटे हो गये हैं, तथा जिन्होंने रक्तपान किया है, उन लंकावासी मांसभक्षी राक्षसों से लोग भयभीत हो जाते हैं ॥
घेत्तूण चुण्णमुट्ठि हरिसससिआए वेपमाणाए ।
भिसिणमित्ति पिअअमं हत्थे गन्धोदअं जाअं ॥ १२ ॥
[ गृहीत्वा चूर्णमुष्टि हर्षोत्सुकिताया वेपमानायाः । अवकिरामोति प्रियतमं हस्ते गन्धोदकं जातम् ॥ ]
हर्ष से उत्सुक कंपित नायिका ने प्रिय के ऊपर कंकुम चूर्ण फेंकने लिये जैसे ही मुट्ठी में लिया, वह सुगन्धित जल में परिणत हो गया ।। १२ ।।
पुट्ठि पुससु किसोअरि पडोहरङ्कोल्लपत्तचित्तलिअं । आहिं दिअरजाआहिँ उज्जुए मा कलिज्जिहिसि ॥ १३ ॥
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