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गाथासप्तशती
[ पृष्टं प्रोञ्छ कृशोदरि पश्चाद्गृहाङ्कोटपत्रचित्रितम् । विदग्धाभिर्देवरजायामि ऋजुके मा कलिष्यसे ॥ ] कृशांगि ! तुम कितनी सरल हो ? पिछवाड़े के अंकोट की पत्तियों से चिह्नित • पीठ तो पोंछ डालो, नहीं तो देवर की चतुर पत्नियाँ जान लेंगी ॥ १३ ॥
अच्छी इँ ता थइस्सं दोहिं वि हत्थेहिँ वि तस्सि दिट्ठे । अङ्ग कलम्बकुसुमं व पुलइअ' कहँ णु ढक्किस्सं ॥ १४ ॥ [ अक्षिणी तावत्स्थगयिष्यामि द्वाभ्यामपि हस्ताभ्यां तस्मिन्दृष्टे । अङ्गं कदम्बकुसुममिव पुलकितं कथं नु च्छादयिष्यामि ॥ ] प्रिय को देखते ही दोनों हाथों से आँखें तो ढँक लूँगी, किन्तु कदम्ब की भाँति पुलकित अंग कैसे छिपा सकूँगी ? ॥ १४ ॥
झञ्झाबा उत्तणिए घरम्मि रोऊण णोसहणिसण्णं । दावेद व गअवइअ' विज्जुज्जोओ जलहराणं ॥ १५ ॥
[ झञ्झावातोत्तृणिते गृहे रुदित्वा निःसहनिषण्णाम् । दर्शयतीव गतपतिकां विद्युद्योतो जलधराणाम् ॥ ]
झंझा के झकोर से जिसका फूस उड़ गया था, उस गृह में रोकर असहाय -बैठी हुई परदेशी की प्रिया को बिजली को कौंध में मेघों को दिखा देती है ।। १५ ।।
भुज्जसु जं साहीणं कुत्तो लोणं कुगामरिद्धम्मि ।
सुहअ सलोणेण वि किं तेन सिणेहो जहिं णत्थि ॥ १६ ॥
[ भुङ्क्ष्व यत्स्वाधीनं कुतो लवणं कुग्रामरिद्धे । सुभग सलवणेनापि किं तेन स्नेहो यत्र नास्ति ॥ ]
जो मेरे अधिकार में है, उसे आप स्वीकार करें, दरिद्र गाँव की रसोई में नमक कहाँ ? जिसमें स्नेह हो नहीं है, वह सलोना होकर ही क्या करेगा ? ॥ १६ ॥
सुहपुच्छिआइ हलिओ मुहपङ्क असुरहिपवणणिव्वविअ । तह पिअइ पअइकडुअ पि ओसहं जण ण गिट्ठाइ ॥ १७ ॥ [ सुखपृच्छिकाया हलिको मुखपङ्कजसुरभिपवन निर्वापितम् । तथा पिबति प्रकृतिकटुकमप्यौषधं यथा न तिष्ठति ॥ ]
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