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चतुर्थं शतकम्
कुशल पूछने वाली के मुख-पंकज के सुरभित पवन से शीतल की हुई स्वभाव से कटु ओषधि को, वह हलवाहा ऐसे पी जाता है कि लेश भी न बचता ॥ १७ ॥ अह सा तह तह व्विअ वाणीरवणम्मि चुक्कसंकेआ । तुह दंसणं विमग्गइ पब्भट्टणिहाणठाणं व ॥ १८ ॥
[ अथ सा तत्र तत्रैव वानीरवने विस्मृतसङ्केता | तव दर्शनं विमार्गति प्रभ्रष्टनिधानस्थानमिव ॥ ]
वह अपना संकेत स्थान भूल जाने से बेतों के उस वन में तुम्हारा दर्शन ढूढ़ रही है, जैसे कोई गड़ी हुई निधि का स्थान भूल गया हो ॥ १८ ॥ दढरोसकलुसिअस्स वि सुअणस्स मुहाहिँ विप्पिअं कत्तो । राहुमहम्मि विससिणो किरणा अमअं विअ मुअन्ति ॥ १९ ॥ [ दृढरोष कलुषितस्यापि सुजनस्य मुखादप्रियं कुतः । राहुमुखेऽपि शशिन: किरणा अमृतमेव मुञ्चन्ति ॥ ]
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दृढ़ रोष से कलुषित होने पर भी सज्जन के मुख से अप्रिय वाणी कब निकलती है ? चन्द्रमा की किरणें राहु के मुख में भी अमृत ही हैं ॥ १९ ॥
अमाणिओ विण तहा दुमिज्जइ सज्जणो विहवहीणो । पडिकाऊ असमत्थो माणिज्जन्तो जह परेण ॥ २० ॥
[ अवमानितोऽपि न तथा दूयते सज्जनो विभवहीनः । प्रतिकर्तु समर्थो मान्यमानो यथा परेण ॥ ]
धनहीन सत्पुरुष तिरस्कृत होने पर भी उतना संतप्त नहीं होता, जितना दूसरे के किये हुए सम्मान का प्रत्युपकार न कर पाने पर ॥ २० ॥ कलहन्तरे वि अविणिग्गआइँ हिअअम्मि जरमुवगआई ।
सुअणक आइ रहस्साइँ उहइ आउक्खए अग्गी ॥ २१ ॥ [ कलहान्तरेऽप्यविनिर्गतानि हृदये जरामुपगतानि । सुजनश्रु तानि रहस्यानि दहत्यायुः क्षयेऽग्निः ॥ ]
जो कलह में भी वाहर नहीं निकलते तथा जो हृदय में ही जीर्ण हो जाते हैं, वे सत्पुरुषों के सुने हुये रहस्य मृत्यु के पश्चात् अग्नि में भस्म हो जाते हैं ।। २१ ।।
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