________________
गाथासप्तशती गृहपति पुत्री एक दुर्लङ घ्य जाल है, उसमें फंस जाने पर अपने घर नहीं जा पाओगे। ७७. आसाइअमण्णासण जेत्तिअं, ता तुइ ण बहुआ थिई । उवरमसु वुसह ! एण्हिं रक्खिज्जइ गेहबइखेत्तं ।।
आस्वादितमज्ञातेन यावत्तावदेव व्रीहीणाम् ।
उपरम वृषभेदानीं रक्ष्यते गृहपतिक्षेत्रम् ॥ इसका अनुवाद तो ठीक ही किया गया है, परन्तु संस्कृतच्छाया अशुद्ध है । 'ता तुइ ण बहुआ धिई' का संस्कृत रूपान्तर तावदेव व्रीहीणाम्' करना आँख में धूल झोंकना है । उसका संस्कृत रूपान्तर यह होगा
तावत् स्वयि न बहुधा धृतिः।।
गाथार्थ-अरे वृषभ ! अनजाने में जितना चर गये हो ( आस्वादन कर चुके हो) उतने से तुम्हारे भीतर अधिक धर्य नहीं आया। रुको, अब गृहपति के क्षेत्र की (खेत की) रक्षा को जा रही है। ____गाथा में वृषभ उपपति का प्रतीक है और क्षेत्र नायिका का । ७८. उच्चिणसु पडिअकुसुमं मा धुण सेहालिअं हलिअसुण्हे ।
एस अवसाणविरसो ससुरेण सुओ वलयसद्दो ॥९५३॥ उच्चिणु पतितानि कुसुमानि मा धुनीः शेफालिका हलिकस्नुषे । एष ते विषमविरावः श्वशुरेण श्रुतो वलयशब्दः ॥
"अरी हलिक की पुत्र-बधू ! गिरा हुआ ही फूल चुन ले, शेफालिका को मत कपा । तेरे ससुर ने विषम आवाज करने वाले वलय का शब्द सुन लिया है (इस का परिणाम बुरा होगा) ।" यहाँ 'एस अवसानविरसो' की छाया 'एष ते विषमविरावः' दी गई है । जो मूलपाठ से सर्वथा विपरीत अर्थ प्रकट करती है । अनुवादक ने इसे ध्वन्यालोक से लिया है। ध्वन्यालोक में इस गाथा का पाठ इस प्रकार है
उच्चिणसु पडिअकुसुमं मा धुण सेहालिअं हलिअसुण्हे ।
अह दे विसमविरावो ससुरेण सूओ वलयसहो। इसमें तृतीयपाद सर्वथा भिन्न है । पूर्वोद्धृत छाया इसी पाठ पर अवलम्बित है । ध्वन्यालोकलोचन में इस गाथा का संस्कृत रूपान्तर इस प्रकार मिलता है
उच्चिनु पतितं कुसुमं मा धुनीहि शेफालिका हलिकस्नुषे ।
एष ते विषमविपाकः श्वशुरेण श्रुतो वलयशब्दः॥ इस रूपान्तर के अनुसार प्राकृत गाथा के प्रथमपाद में 'पडि अकुसुमं' के स्थान पर 'पडियं कुसुम' ( पतितं कुसुमं ) रख देने पर एक मात्रा अधिक हो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org