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________________ अनिरुपण जाती है । अतः इसे संस्कृतच्छाया नहीं कह सकते । यह संक्षिप्त अर्थ है जिसमें 'पडि अकुसुम' (पतितकुसुमं ) के समासस्थ पदों को विभक्ति सहित पृथक् कर दिया गया है। सूत्रोपाव में 'एष ते विषमविपाकः' लिखना अवश्य पाठभेद का सूचक है। बतः लगता है लोचनकार के समक्ष प्राकृत गाथा का स्वरूप यह वा उच्चिणसु पडिअकुसुमं मा धुण सेहालिअं हलिअसुण्हे । अह दे विसमविवाओ ससुरेण सुओ वलयसद्दो ॥ अर्थात् हे हलिक की पुत्रवध ! गिरे फूल को चुन ले, शेफालिका ( हरसिंगार ) को हिला मत (झकझोर मत ) यह विषमपरिणाम वाला तेरा वलयशब्द ससुर ने सुन लिया है अथवा अब ( अह = अथ ) तेरे उस कंकण शब्द को ससुर ने सुन लिया है जिसका परिणाम भयानक होगा। गाथासप्तशती की अतिरिक्त गाथाओं में उपलब्ध पाठ के अनुसार प्राकृत गाथा की संस्कृतच्छाया यह होगी : उच्चिनु पतितकुसुमं मा धुनीहि शेफालिका हलिकस्नुषे । एषोऽवसानविरसः श्वशुरेण श्रुतो वलयशब्द : ॥ पाठान्तरयुक्त उत्तरार्ध का अर्थ यह होगा :अन्त में विरस हो जाने वाला तेरा यह कंकण-शब्द ससुर ने सुन लिया है। इस प्रकार प्रस्तुत गाथा के तीन पाठ उपलब्ध हैं। ७९-मा पन्ध ! संघसु पहमवेहि बालअ! असेसिअहिरीअ !। अम्हे अणिरिक्काओ सुण्णं घरअं व अक्कमसि ॥९५५।। मा पन्थानं रुषः अपेहि बालक अप्रौढ़ अहो असि अहोकः । वयं परतन्त्रा यतः शून्यगृहं मामकं रक्षणीयं वर्तते ।। "राह मत रोक, अपनी राह ले, बालक ! निर्लज्ज ! हम अकेली हैं, सूने घर में चला जा रहा है।" इसकी संस्कृतच्छाया आँख मदकर ध्वन्यालोकलोचन से उद्धृत की गई है । अनुवादक ने यह भी नहीं देखा कि गाथा का पाठ क्या है और हम उसकी छाया क्या दे रहे हैं । प्रस्तुत गाथा क्यालोक में पाठभेद से इस प्रकार समुदाहृत मा पंधं रुग्धीयो अवेहि बालअ अहोसि अहिरोओ । यस णिरिन्छामो सुण्णधरं रविखदब्वं णो ॥ लोचनकार से इसका संक्षिप्तार्थ इन शब्दों में दिया है : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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