SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथासप्तशती 'मा पन्थानं रुधः अपेहि बालक अप्रौढ अहो असि अह्रीकः। वयं परतन्त्रा यतः शून्यं गृहं मामकं रक्षणीयं वर्तते ॥ इस प्रामाणिक संक्षिप्तार्थ को भ्रमवश संस्कृतच्छाया समझने के कारण परवर्ती व्याख्याकारों ने ध्वन्यालोक की ऊपर उद्धृत गाथा की भ्रामक एवं अशुद्ध व्याख्या की है । आचार्य विश्वेश्वर ने भी अन्धपरम्परा का ही अनुसरण किया है। कविशेखर बदरीनाथ शर्मा ने अवश्य दीधिति टीका में परम्परा से हटकर णिरिच्छाओ ( निरिच्छाः ) का वास्तविक अर्थ इस प्रकार दिया है: " वयं निरिच्छाः सर्वथास्पृहाशन्याः पराधीना वा स्मः ।" परन्तु 'पराधीना वा स्मः' लिखकर मूलपाठ विरोधी अर्थ को भी मान्यता दे दी है। यही नहीं, हिन्दीमें मल विरोधी एवं परम्परापोषित अर्थ ही दिया है। ____ध्वन्यालोक के सभी संस्करणों में 'अम्हेअ णिरिच्छाओ' की संस्कृतच्छाया 'वयं निरिच्छाः' दी गई है, किन्तु उसके वास्तविक अर्थ-निरूपण की दृढता किसी व्याख्याकार ने नहीं दिखाई । सबने लोचन को प्रमाण मानकर 'निरिच्छ' का अर्थ 'परतन्त्र' दिया है । किसी ने यह भी नहीं सोचा कि 'निरिच्छ' तो इच्छा शून्य का वाचक है, इस शब्द का अर्थ 'परतन्त्र' कैसे होगा ? इसी सन्दर्भ में एक और तथ्य पर ध्यान देना आवश्यक है, ध्वन्यालोक के समस्त व्याख्याकार 'अम्हेअ' के अन्तिम 'अ' की निरन्तर उपेक्षा करते आये हैं। 'णिरिच्छाओ' की संस्कृतच्छाया 'निरिच्छाः' करना तो उचित है, परन्तु अम्हेल का अर्थ 'वयं' ( हम ) कैसे हो जायेगा ? प्राकृत में 'वयं' के लिये मात्र अम्हे का प्रयोग होता है, अम्हेअ का नहीं। अतः 'अम्हेअ णिरिच्छाओ' को 'अम्हे अ णिरिच्छाओ' पढ़ना होगा । उसकी छाया होगी :-वयं च निरिच्छाः । अब प्रश्न यह है कि यदि णिरिच्छाओ (निरिच्छाः) का अर्थ 'इच्छा शून्य' है तो लोचन जैसी परम प्रामाणिक टीका में उसका अर्थ 'परतन्त्र' कैसे लिय दिया गया ?। लोचनकार आचार्य अभिनवगुप्त उद्भट विद्वान् थे। वे इस साधारण शब्द का अर्थ न समझ पायें हो-ऐसी बात नहीं है । निःसन्देह उनके समक्ष ध्वन्यालोक की जो हस्तलिखित प्रति थी उसमें 'णिरिच्छाओ' के स्थान पर कुछ और ही शब्द था। उस शब्द की सूचना गाथासप्तसती की अतिरिक्त गाथाओं में पाठ भेद से संगृहीत इस गाथा से मिलती है : मा पन्थ रुन्धसु पहमवेहि बालअ! असेसिअ हिरीअ । __ अम्हे अणिरिक्काओ सुण्णं घरअं व अक्कमसि ।। १-अप्रौढ, यतः, मामकं और वर्तते का अतिरिक्त निक्षेप, तथा अहो असि के रूप में अहोसि के संश्लिष्ट पदों का विश्लेषण एवं शन्यगृहं के समस्त पदों का सविभक्ति पृथक्करण इसे गाथा का संक्षिप्तार्थ घोषित करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy