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अर्थनिरूपण
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इस पाठान्तर में 'अम्हेअ णिरिच्छाओ' के स्थान पर 'अम्हे अणि - रिक्काओ' मिलता है । इससे 'अम्हेभ' शब्द की आर्थिक अनुपपत्ति का निवारण हो जाता है । उसका अतिरिक्त अन्त्य अकार 'अणि रिक्काओ' का प्रारम्भिक अवयव बन जाता है । 'पाइअसद्दमहण्णव' के अनुसार 'अणिरिक्क' का अर्थ 'परतन्त्र' है । इस अर्थ की पुष्टि में कोशकार ने इसी गाथा को और इसके काव्य प्रकाशीय पाठ को इंगित किया है । इसके विपरीत हेमचन्द्रकृत देशीनाममाला में 'अण रिक्क' शब्द संगृहीत है । वहाँ 'अणि रिक्क' शब्द है ही नहीं । अब विचारणीय यह है कि अणरिक्क और अणि रिक्क - दोनों पृथक-पृथक शब्द हैं या अण रिक्क ही वर्तनी भेद से अणिरिक्क लिख लिया गया है । प्राकृत में अण ( संस्कृत अन् ) का रूप 'अणि' भी उपलब्ध है । 'ऋण' शब्द का प्राकृत रूप 'रिण' है । उसमें नन्समास होने पर ( अण + रिण की दशा में ) 'अणि रिण ' शब्द बनता है । लगता है, अणिरिक्क भी अणरिक्क का ही पाठान्तर है । देशीनाममाला में इसका अर्थ इस प्रकार दिया गया है :
" खणम्मि अवरिक्क-अण रिक्का"
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" raftant तथा अणरिक्को क्षण रहितः । निरवसर इति यावत् । " ॥ १२० ॥ अर्थात् अवरिक्क और अणरिक्क का अर्थ है- निरवसर । लोचन टीका में ध्वन्यालोक की उपयुक्त गाया का संक्षिप्तार्थं मात्र संकेतित है । उसकी विस्तृत व्याख्या नहीं की गई है । अतः वहाँ 'वयं परतन्त्रता: ' में शब्दार्थ का नहीं; अपितु भावार्थं की दिशा का मनाक् स्पर्श किया गया है। हेमचन्द्र ने 'अण रिक्क' का अर्थं 'निरवसर' लिखा है । यह गाथा के प्रकरण के सर्वथा अनुकूल है । इस प्रकार इस गाथा के निम्नलिखित तीन पाठ मिलते हैं
१ - ध्वन्यालोक स्वीकृत
२ – लोचनकार स्वीकृत
३- गाथासप्तशती की अतिरिक्त गाथाओं में स्वीकृत इन तीनों पाठों की संस्कृतच्छायाएँ और अर्थ इस प्रकार होंगे ध्वन्यालोक सम्मत पाठ की संस्कृतच्छाया और उसका अर्थ
:
मा पन्थानं रौत्सीः ( रुधः वा ) ओ (अरे) अपे ह
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बालक ! अहो अस्यह्रोकः । वयं च निरिच्छाः शून्यगृहं रक्षितव्यं नः ॥
अर्थ - अरे बालक ( बुद्धिहीन ) मार्ग मत रोक, अहो, बड़ा ही निर्लज्ज है तू हट जा, हमें सूने घर की रखवाली करनी पड़ती है और हमारी इच्छा ( उस काम को करने की ) नहीं है ।
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