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गाथासप्तशती
भाव यह है कि अकेले सूने घर की रक्षा में मेरा मन नहीं लगता, तू वहीं चलेगा तो मैं ऊबूगी नहीं और एकान्त में तेरी इच्छा भी पूर्ण हो जायेगी । लोचनकार सम्मत पाठ की संस्कृतच्छाया और उसका अर्थ
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मा पन्थानं रुधः ओ ( अरे ) अपेहि बालक अहो अस्यह्रीकः । वयमनवसराः ( परतन्त्रा ) शून्यगृहं रक्षितव्यं नः ॥
अर्थ - अरे अप्रौढ ( बुद्धिहीन ) मार्ग मत रोक, तू, हट जा, ( कर्तव्यपालन में परतन्त्र होने के कारण ) ही नहीं है क्योंकि ( हमें ) सूने घर की रखवाली करनी पड़ती है ।
आशय यह है कि मार्ग में क्यों छेड़ रहा है ? चल, मेरा घर सूना है, वहीं तेरी इच्छा पूरी कर दूँगी ।
अरिक्क को अरिक्त ( अण + रिक्क रिक्त ) के अर्थ में भी ले सकते हैं । तब गाथा के उत्तरार्ध का अर्थ इस प्रकार होगा - हम रिक्त (खाली) नहीं है ( हमें फुर्सत नहीं है ) क्योंकि हमें सूने घर की रक्षा करनी पड़ती है । गाथासप्तशती की अतिरिक्त गाथासंग्रह में स्वीकृत पाठ की संस्कृतच्छाया और उसका अर्थ :
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अहो, बड़ा ही निर्लज्ज है
हमें अवसर ( फुर्सत )
मा पान्थ ! रुन्द्धि पथमपेहि बालक ! अशेषित हीकः । गृहमेवाक्रमसि ||
वयमनवसराः
शून्यं अर्थ -- अरे लज्जा को पूर्णतः नष्ट कर देने वाले ( निर्लज्ज ) बुद्धिहीन पथिक ! हट जा । मेरे सूने घर में ही घुसा चला आ रहा है, हमें ( तेरे आतिथ्य का ) अवसर ( फुर्सत ) ही नहीं है ।
यहाँ आगमन के निषेध में विधि छिपी है । 'अवसर नहीं है ।' से यह ध्वनि निकलती है कि सूने घर में आतिथ्य का पर्याप्त अवसर मिलेगा । ८० - पुप्पभरो णमिअभूमिगअसाहंरूण (?) विष्णवणं ।
गोलाअडविअडकुड्डंगमहुअ
॥ ९५८ ॥
यह गाथा खंडित पाई गई है । अनुवादक ने इसका अनुवाद नहीं किया है । अपूर्ण कहकर इसे छोड़ दिया है ।
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यह गाथा गाथासप्तशती में निम्नलिखित पाठभेद से संगृहीत है बहु पुप्फभारो णमिअभूमिगअसाह ! सुणसु विष्णति । गोलाअडविअडकुड्डंग महुअ ! सणिअं गलिज्जासु ॥
अतः पूर्वोद्भुत गाथा का खंडित भाग स्वतः पूर्ण हो जाता है । पूर्वार्ध में द्वितीयपाद का पाठ विकृत होने के कारण अर्थ स्पष्ट नहीं है । मेरे विचार से सम्पूर्ण गाथा का निम्नलिखित पाठ करने पर भाव स्पष्ट हो जायेगा -
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