________________
अर्थनिरूपण पुप्फभरोणमिअभूमिगअसाहंत ! उण्णविण्णवण ! ।
गोलाअडविअडकुड्डंगमहुअ ! सणिअं गलिज्जासु ॥ संस्कृतच्छाया
पुष्पभरावनतभूमिगतशाखान्त ! पुण्यविज्ञपन !।
गोदातटविकटनिकुञ्जमधूक ! शनैर्गलिष्यसि ।। अर्थ हे गोदावरी-तट के विकट निकुंज के मधूक ( महुआ ) वृक्ष ! हे पुष्यविशपन ! ( पुण्य का विज्ञापन या प्रकाशन करने वाले ) तुम्हारी शाखाओं का अग्रभाग पुष्प के भार से अवनत होकर भूमि पर पहुँच गया है, तुम धीरेधीरे चूना ( टपकना )।
इसमें किसी कुलटा का वर्णन है। जब तक महुआ टपकेगा तभी तक वह उसी के व्याज से अपने प्रेमी से मिल सकेगी। ८१. गृहिणिप्रवेशितजारे गृहे गृहे ( गृहिणी?) स्थापिता । मिलिता वदति(असती?)जारउ पश्चात् गृहिणी गृहस्थश्च ॥९५९॥ इस पर निम्नलिखित टिप्पणी है :
"गाथा अपूर्ण एवं अशुद्ध है ।" प्रस्तुत गाथा का लगभग सम्पूर्ण भाग ( जारउ को छोड़ कर ) संस्कृत में है । छन्द की दृष्टि से वांछित मात्राओं में भी न्यूनता है। लगता है, यह किसी लुप्त प्राकृत गाथा की विकृत संस्कृतच्छाया है । अतः सर्वप्रथम संस्कृत पाठ के आधार पर इसका प्राकृत पाठ देना है। उसके पश्चात् ही अर्थनिरूपण होगा। गाथा का प्राकृत पाठ यह होगा :
घरिणिपवेसिअजारे घरम्मि घरम्मि हु ठाविआ घरिणि । मिलिआ वति असईजारे घरणिं गहत्थं अ॥ इस निर्धारित प्राकृत-पाठ में उपलब्ध संस्कृत पाठ में विद्यमान 'पश्चात' शब्द छन्द के अनुरोध से छोड़ दिया गया है और अविद्यमान हु' का निवेश कर दिया गया है।
'पश्चात्' अर्थ की दिशा का संकेत करने के कारण टीका का अंश प्रतीत होता है।
गाथा का भावार्थ यह है :
किसी सम्पन्न विलासी और बाह्यकार्यानुषक्त गृहस्थ की पत्नी घर में जार ( उपपति ) को छिपाकर रखती थी । गृहस्थ ने सोचा, यदि प्रत्येक घर (कमरे) में एक-एक गृहिणी (पत्नी) और लाकर रख दें तो जार को छिपाने का स्थान नहीं मिलेगा और वह भाग जायेगा । उसने ठीक वैसा ही किया । प्रत्येक कक्ष
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org