SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथासप्तशतो में एक-एक पत्नी और लाकर रख दो। वे सब नवागत पत्नियां मिलकर पहले से विद्यमान जार और अपनो सौत (पूर्व पत्नी ) को गृहस्थ और गृहिणो ( पति और पत्नी ) कहगे लगीं। उन्होंने यह नहीं समझा कि यह स्त्री हमारो सौत है और उसके साथ रहने वाला पुरुष उसका उपपति है । इस प्रकार उन्होंने दोनों के अवैध सम्बन्ध को वैधता प्रदान कर दी। ८२. होमि वहत्थिअरेहो णिरंकुसो अह विवेअरहिओ वि । सिविणे वि तुमम्मि पुणो पत्तिहि भत्ति ण सुभिरामि ॥९९३॥ भवाम्यपहस्तितरेखो निरङ्कशोऽथ विवेकरहितोऽपि । स्वप्नेऽपि त्वयि पुनः प्रतोहि भक्ति न प्रमोक्ष्यामि ॥ "हे राजन् ! मैंने मर्यादा छोड़ दी है, मैं निरंकुश और विवेकरहित भी हूँ, फिर भी तुम विश्वास करो, स्वप्न में भी तुम्हारे प्रति भक्ति नहीं छोडूंगा।" 'भत्ति ण सुमिरामि' की संस्कृतच्छाया 'भक्ति न प्रमोक्ष्यामि' कैसे हो जायेगी ? 'सुमिरामि' की संस्कृतच्छाया तो 'स्मरामि' है । वह मोक्षण का अर्थ दे ही नहीं सकती। मूल प्राकृत की वर्तमानकालिक क्रिया संस्कृत रूपान्तर में भविष्यकालिक नहीं हो जाती। काव्यप्रकाश में उदाहृत इस गाथा का चतुर्थपाद इस प्रकार है : पत्तिहि भत्ति ण पसुमिरामि । परन्तु इस अंश की संस्कृतच्छाया यह दो गई है : प्रतीहि भक्ति न प्रस्मरामि । और अर्थ दिया गया है :"विश्वास कीजिये कि मैं आपकी भक्ति को कदापि न भूलंगा।"१ यह अनुवाद भ्रामक है । 'न प्रस्मरामि' का अर्थ 'न भूल गा' नहीं होता, उसका अर्थ है :-विशेष रूप से स्मरण नहीं करता हूँ। वस्तुतः उक्त संस्कृतच्छाया अशुद्ध है । 'भत्ति प पसुमिरामि' का संस्कृतरूपान्तर भक्ति नापस्मरामि ( न अप + स्मरामि ) होगा। प्राकृत में पर्ववर्ती 'ण' के अन्त्य अकार का लोप होने और 'अपसुमिरामि' आद्य 'अ' के उस स्थान 'पर 'आ' जाने से ‘णपसुमिरामि' हो जायेगा। गाथा के ऊपर उद्धृत पाठान्तर में 'होमि वहत्थि अरेहो' का प्रयोग है। वहाँ होमि का अनन्तरवर्ती अव ( अप) का आह्य अकार लुप्त हो गया है । गाथा के चतुर्थ पाद का अर्थ यह है :विश्वास रखिये, भक्ति को नहीं भूलता हूँ। -- १. हरि मंगल मित्र कृत काव्यप्रकाश का अनुवाद पृ० २६५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy