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________________ द्वितीय शतकम् आअस्स कि णु करिहिम्मि कि बोलिस्स कहं णु होइहि इमिति । पढमुग्गअसाहसआरिआइ हिअ थरहरेइ ॥ ८७ ॥ [आगतस्य किं नु करिष्यामि किं वक्ष्यामि कथं नु भविष्यति [इदम्] इति । प्रथमोद्गतसाहसकारिकाया हृदयं थरथरायते ।।] उनके आने पर क्या करूँगी ? क्या कहूँगो ? कैसे होगा? यह सोचते ही पहली बार साहस करने वाली अभिसारिका का हृदय धड़कने लगता है ।। ८७ ॥ णेउरकोडिविअग्गं चिउरं दइअस्स पाअपडिअस्स । हिअ पउत्थमाणं उम्मोअन्ती विअ कहेइ ॥ ८८॥ [ नूपुरकोटिविलग्नं चिकुरं दयितस्य पादपतितस्य । हृदयं प्रोषितमानमुन्मोचयन्त्येव कथयति ॥] ___ चरणों पर गिरे हुए प्रिय के बालों को-जो नूपुर को कोटि में फंस गये थे--मुक्त करती हुई चन्द्रमुखी ने बतला दिया कि अब उसके हृदय से मान निकल गया है ॥ ८८॥ तुज्झबराअसेसेण सामली तह खरेण सोमारा। सा किर गोलाऊले हाआ जम्बूकसाएण ॥ ८९ ॥ [तवाङ्गराग शेषेण श्यामला तथा खरेण सुकुमारा । सा किल गोदाकूले स्नाता जम्बूकषायेण ।। ] गोदावरी के किनारे तुम्हारे लगाने से बचे हुए उतने तोखे जामुन के अंगराग से सुकुमारी श्यामांगी ने स्नान किया ॥ ८९ ॥ अज्ज व्वेष पउत्थो अज्ज विअ सुण्ण आईं जाआई। रत्थामुहदेउलचत्तराई अां च हिआईं ॥ ९०॥ [ अद्यैव प्रोषितोऽद्यैव शून्यकानि जातानि । रथ्यामुखदेवकुलचत्वराण्यकस्माकं च हृदयानि ।।] उन्होंने आज हो प्रयाण किया और आज हो गलो, देव मन्दिर का प्रांगण और हमारे हृदय सूने हो गये हैं ॥ ९० ॥ चिरडि पि अआणन्तो लोआ लोएहि गोरवन्भहिआ। सोणारतुले व्व गिरक्खरा वि खन्धेहि उम्भन्ति ॥ ९१ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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