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गाथासप्तशती
तुम्हारे हृदय में, जहाँ हजारों
महिलायें भरी हुई हैं, अपने लिये पर्याप्त स्थान न पाकर वह तन्वंगी दिन भर सब काम छोड़कर अपने पहले से हो • दुर्बल शरीर को और भी दुर्बल करती जा रही है ॥ ८२ ॥
खणमेतं पण फिट्टइ अणुदिअहविद्दण्णगरुअसंतावा । पच्छण्णपावसङ्के व्व सामली मज्झ हिअआओ ॥ ८३ ॥ [ क्षणमात्रमपि नापयात्यनुदिवस वितीर्णगुरुकसंतापा । प्रच्छन्नपापशङ्केव श्यामला मम हृदयात् ॥ ]
गुप्त पाप की शंका के समान प्रतिदिन प्रचण्ड संताप प्रदान करने वाली • प्रिया क्षणभर भी मेरे हृदय से दूर नहीं होती ॥ ८३ ॥
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अज्जअ णाहं कुविआ अवऊहसु किं मुहा पसाएसि ।
तुह मण्णुसमुप्पाअऍण मज्झ माणेण वि ण कज्जं ॥ ८४ ॥ [ अयंक नाहं कुपिता उपगूह कि मुधा प्रसादयसि । तव मन्यसमुत्पादकेन मम मानेनापि न कार्यम् ॥ ]
स्वामी ! ( अर्थक) व्यर्थ क्यों मुझे प्रसन्न कर रहे हो ? निर्भय आलिंगन करो। मैं कुपित नहीं हूँ । तुम्हें दुःख देने वाले मान से भी मेरा अब कोई प्रयोजन नहीं रह गया ॥ ८४ ॥
दीप उरणीसासपआविओ वाहसलिलपरिसित्तो ।
साहेइ सामसवलं व तीऍ अहरो तुह विओए ॥ ८५ ॥
[ दीर्घोष्णप्रचुर निःश्वासप्रतप्तो बाष्पसलिल परिसिक्तः । साधयति श्यामशबलमिव तस्या अधरस्तव वियोगे ॥ ]
जो दीर्घ और ऊष्ण श्वासों से संतप्त हो गया है तथा जो अश्रु जल से सिक्त हो गया है, वह विरहिणी का अधर मानों तेरे वियोग में 'श्याम - शबल' ( व्रत - विशेष ) की साधना कर रहा है ॥ ८५ ॥
सरए महद्धदाणं अन्ते सिसिराइँ वाहिरुहाई ।
जाआइँ कुविअसज्जणहिअअसरिच्छाइँ सलिलाई ॥ ८६ ॥ शरदि महा हृदानामन्तः शिशिराणि बहिरुष्णानि । जातानि कुपितसज्जनहृदयसदृक्षाणि सलिलानि ॥ ] शरत्काल में सरोवरों का जल कुपित सज्जनों के हृदय की भाँति ऊपर गर्म होने पर भी भीतर शीतल हो गया है ॥ ८६ ॥
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