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द्वितीय शतकम्
[ नाहं दूती न त्वं प्रिय इति कोऽस्माकमत्र व्यापारः । सा म्रियते तवायशस्तेन च धर्माक्षरं भणामः ॥ ]
है ।
मैं न तो दूती हूँ और न तुम प्रेमी हो । वह मर रही है, तुम्हें अपयश होगा, हूँ ।। ७८ ।।
मेरा यहाँ कोई प्रयोजन भी नहीं इसलिये धर्म की बात कहती
तीअ मुहाहिं तुह मुहँ तुज्झा मुहाओ अ मज्झ चलणम्मि । हत्थाहत्थीअ गओ अहदुक्करआरओ तिलओ ॥ ७९ ॥
[ तस्या मुखात्तव मुखं तव मुखाच्च मम चरणे । हस्ताहस्तिकया गतोऽतिदुष्करकारकस्तिलकः ॥ ]
अत्यन्त दुष्कर कार्य करने वाला यह तिलक उसके मुख से तुम्हारे मुख पर और तुम्हारे मुख से मेरे चरणों पर हाथों हाथ आ गया है ।। ७९ ।।
४३
सामाइ सामलिज्जइ अद्धच्छिपलोइरीअ मुहसोहा । जम्बूदलकअकण्णावअंसभरिए हलिअपुते ॥ ८० ॥
[ श्यामाया: श्यामलायतेऽर्धाक्षिप्रलोकनशीलाया मुखशोभा । जम्बूदलकृत कर्णावतंसमभ्रमणशीले हलिकपुत्रे ।। ]
जम्बू-पत्र का कर्णाभरण धारण कर विचरते हुए नवयुवक किसान को आधी चितवन से देखकर षोडशी वाला के मुख की कान्ति श्याम हो गई ॥ ८० ॥
दूध तुमं विअ कुसला कक्खमउआइँ जाणसे वोल्ल । कण्डूहअपण्डुरें जह ण होई तह तं करेज्जासु ॥ ८१ ॥ [ दूति त्वमेव कुशला कर्कशमृदुकानि जानासि वक्तुम् । कण्डुयितपाण्डुरं यथा न भवति तथा तं करिष्यसि ॥ ]
दूती ! तुम कुशल हो, कठोर और मृदु बोलना जानती हो । अब उसको कुछ ऐसा करो, जिससे खुजली भा दूर हो जाये और चमड़ा भी विरूप न हो ॥ ८१ ॥
महिला सहस्सभरिए तुह हिअए सुअह सा अमाअन्तो ।
दिअहं अणण्णकम्मा अङ्गं तणुअं पि तणुएइ ॥ ८२ ॥
[ महिला सहस्रभृते तव हृदये सुभग सा अमान्ती । दिवसमनन्यकर्मा अङ्गं तनुकमपि तनूकरोति ॥ ]
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