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________________ ४६ गाथासप्तशती [ वर्णावलीमप्यजानन्तो लोका लोकैर्गौरवाभ्यधिकाः । सुवर्णकारतुला इव निरक्षरा अपि स्कन्धैरुह्यन्ते ॥ ] जैसे सोनार की तुला निरक्षर होने पर भी आदर से रखी जाती है वैसे ही कुछ निरक्षर ( अपढ़ - मूर्ख ) लोग कन्धों पर बैठा लिये जाते हैं ( अतिशय आदरास्पद बना दिये जाते हैं । ) ॥ ९१ ॥ आअम्बरन्तकवोलं खलिअक्खरजपिरि फुरन्तोट्ठि । मा छिवसुत्ति सरोसं समोसरन्ति पिअं भरिमो ॥ ९२ ॥ [ आताम्रान्तः कपोलां स्खलिताक्षरजल्पशोलां स्फुरदोष्ठोम् । मा स्पृशेति सरोषं समपसर्पन्तीं प्रियां स्मरामः ॥ ] जिसके कपोल आरक्त हो गये थे, बोलते समय जिसकी वाणी स्खलित हो जाती थी, जिसके ओंठ फड़क रहे थे तथा क्रोध से " मुझे मत छुओ" कहती हुई पीछे हट रही थी, उस प्राणेश्वरी की स्मृति को मैं भूलता नहीं हूँ ।। ९२ ॥ गोलाविसमोआरच्छलेण अप्पा उरम्मि से मुक्को । अणुअम्पाणिद्दोसं तेण वि सा आढमुवऊढा ॥ ९३ ॥ [ गोदावरी विषमावता रच्छलेनात्मा उरसि तस्य मुक्तः । अनुकम्पा निर्दोषं तेनापि सा गाढमुपगूढा ॥ ] नायिका ने गोदावरी के ऊँचे-नीचे ढालों से उतरने के बहाने अपने को नायक के वक्ष पर गिरा दिया और उसने उसको भुजाओं में कस लिया तो कोई दोष नहीं, क्योंकि यह उसकी दयालुता थी ।। ९३॥ सा तुइ सहत्यदिण्णं अज्ज वि रे सुहअ गन्धरहिअं पि । उव्वसिअणअरघरदेवदे aa ओमालिअं वहइ ॥ ९४ ॥ [ सा त्वया स्वहस्तदत्तामद्यापि रे सुभग गन्धरहितामपि । उद्वसितनगर गृहदेवतेव अमालिकां वहति ॥ ] नगर की विसर्जित गृह देवी के समान वह बाला आज भी तुम्हारे हाथों से दी हुई माला, गन्धहीन हो जाने पर भी पहनती है ॥ ९४ ॥ केलोअ वि रूसेउं ण तीरए तम्मि चुक्कविणअम्मि । जाइअएहिए व माए इमेहिँ अवसेहि अहं ॥ ९५ ॥ [ केल्यापि रुषितु ं न शक्यते तस्मिच्युतविनये । याचितकैरिव मातरेभिरवशैरङ्गेः ॥ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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