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द्वितीय शतकम् माँ मैं विनय को भूल जाने वाले प्रेमान्ध पति से हंसी में भी रूठ नहीं सकती क्योंकि उनके सम्मुख अपने विवश-अंगों पर मेरा अधिकार ही नहीं रहता, जैसे मैंने इन्हें किसी से मांग कर पाया हो ॥ ९५ ॥ उप्फुल्लिआइ खेल्लउ मा णं वारेहि होउ परिऊढा। मा जहणभारगरुई पुरिसाअम्तो किलिम्मिहिइ ॥ ९६ ॥ [ उत्फुल्लिकया खेलतु मैनां वारयत भवतु परिक्षामा।
मा जघनमारगुर्वी पुरुषायितं कुवती क्लमिष्यति ।।] उसे 'उत्फुल्लिका' खेलने दो, रोको मत, दुबली हो जायगी तो साँसों के बंध जाने पर रति क्रीड़ा में पुरुष का नाट्य करती हुई मोटी जाँघों के भार से श्रान्त न होगी।।। ९६ ॥ पउरजुवाणो गामो महुमासो जोअणं पई ठेरो। जुण्णसुरा साहोणा असई या होउ कि मरउ ॥ ९७ ॥
[प्रचुरयुवा ग्रामो मधुमासो यौवनं पतिः स्थविरः ।
जीर्णसुरा स्वाधीना असती मां भवतु किं म्रियताम् ।।] युवकों से भरा गाँव, वसन्त का समय, यौवन की उड़ान, वृद्ध पति और 'पुरानी सुरा-इनके रहते स्वाधीन नारी यदि व्यभिचारिणी न हो जाये तो क्या मर जाये? ॥ ९७ ॥ बहुसो वि कहिज्जन्तं तुह वअणं मज्झ हत्थसंदिढें । ण सुअं त्ति जम्पमाणा पुणरुत्तसरं कुणई अज्जा ॥ ९८॥ [बहुशोऽपि कथ्यमानं तव वचनं मम हस्तसंदिष्टम् ।।
न श्रुतमिति जल्पन्ती पुनरुक्तशतं करोत्यार्या ॥] मेरे हाथों द्वारा भेजा हुआ तुम्हारा सन्देश जब मैंने उस मृगनयनी को सुनाया तो बार-बार सुनने की इच्छा से "मैंने नहीं सुना, मैंने नहीं सुना" कहकर उसने सैकड़ों बार मुझसे कहलाया ।। ९८ ॥ पाअडिअणेहसब्भावणिब्भरं तीअ जह तुमं दिट्ठो । संवरणवावडाए अण्णो वि जणो तह व्वेअ ॥ ९९ ॥
[प्रकटितस्नेहसद्भावनिर्भरं तया यथा त्वं दृष्टः। संवरणव्यापृतया अन्योऽपि जनस्तथैव ॥]
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