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________________ गाथा सप्तशती कुलांगना ने पूर्ण स्नेह और सद्भाव व्यक्त करते हुए जैसे तुम्हें देखा था वैसे ही आत्म संवरण में संलग्न होकर अन्य व्यक्ति को भी ॥ ९९ ॥ गेह पलोअह इमं पहसिअवअणा पइल्स अप्पे | सुअपढमुब्भिण्णदन्तजुअलङ्किअं बोरं ॥ १०० ॥ [ गृह्णीत प्रलोकयतेदं प्रहसितवदना पत्युरर्पयति । जाया सुप्रथमोद्भिन्नदन्तयुगलाङ्कितं बदरम् ॥ ] जाआ "लो यह देखो" ! कह कर मुस्कराती हुई पत्नी ने बालक की नन्हीं दंतुलियों से अंकित बेर पति को अर्पित कर दिये ॥ १०० ॥ रसिअजणहिअअदइए कइवच्छलप मुहसुकइणिम्मइए । सत्तसअम्मि समत्तं बीअं गाहासअं एअं ॥ १०१ ॥ ४८ [ रसिकजनहृदयदयिते कविवत्सलप्रमुखसुकविनिमिते । सप्तशतके समाप्तं द्वितीयं गाथाशतकमेतत् ॥ ] जिनमें हाल का स्थान प्रमुख है, उन कवियों द्वारा बनाए हुए रसिकों के प्यारे सप्तशतक का द्वितीय शतक पूरा हुआ ॥ १०१ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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