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तृतीयं शतकम् अच्छउ ता जणवाओ, हिअ विअ अत्तणो तुह पमाणं । तह तं सि मन्दणेहो जह ण उवालम्भजोग्गो सि ॥१॥
[ अस्तु तावज्जनवादो हृदयमेवात्मनस्तव प्रमाणम् ।
तथा त्वमसि मन्दस्नेहो यथा नोपालम्भयोग्योऽसि ।।] लोग जो कहते हैं, उसे छोड़िये, तुम्हारा हृदय ही तुम्हारी करतूत का प्रमाण है । अब तो इतने विरक्त हो गये हो कि मैं उपालंभ भी नहीं दे सकती ॥१॥ अप्पच्छन्दपहाविर दुल्लहलम्भं जणं वि मग्गन्त । आआसपहेहि भमन्त हिअअ कइआ वि भन्जिहिसि ॥ २॥ [ आत्मच्छन्दप्रधावनशील दुर्लभलम्भं जनमपि मृगयमाण।
आकाशपथैर्धमदहृदय कदापि भक्ष्यसे ।। ] तुम अपनी रुचि से सर्वत्र दौड़ लगाते हो । दुर्लभ व्यक्ति को भी खोजने लगते हो। मेरे आकाशचारी हृदय ! किसी दिन गिर कर चूर-चूर हो जाओगे ॥२॥ अहव गुणविअ लहुआ अहवा गुणअणुओं ण सों लोओ। अहव ह्मि गिग्गुणा वा बहुगुणवन्तो जणो तस्स ॥ ३ ॥
[ अथवा गुणा एव लघवोऽथवा गुणज्ञो न स लोकः । ___ अथवास्मि निगुणा वा बहुगुणवाञ्जनस्तस्य ॥]
या तो गुणों का आदर नहीं होता या वह गुणज्ञ ही नहीं है अथवा मैं गुणहीन हूँ या उसकी प्रेयसी मुझसे अधिक गुणवती है ॥ ३ ॥ फुट्टन्तेण व्वि हिअएण मामि कह णिव्वरिज्जए तम्मि । आदंसे पडिबिम्ब वि ज्जम्मि दुःखं ण संकमइ ॥४॥ [स्फुटितापि हृदयेन मातुलानि कथं निवेद्यते तस्मिन् ।
आदर्श प्रतिबिम्बमिव यस्मिन्दुःखं न संक्रामति ॥] मामी ! हृदय फट रहा है तब भी जिसके भीतर दर्पण में प्रतिबिम्ब की भांति मेरा दुःख नहीं पहुँच पाता, उससे कैसे कहूँ ? ॥ ४ ॥
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