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________________ गाथासप्तशतो पासासङ्की काओ णेच्छदि दिण्णं पि पहिअघरणीए । ओअन्तकरअलोगलिअवलअमज्झटिअं पिण्डं ॥५॥ [पाशाशको काको नेच्छति दत्तमपि पथिकगृहिण्या। अवनतकरतलावगलितवलयमध्यस्थितं पिण्डम् ।।] परदेशी की प्रिया ने बलि प्रदान करने के लिये हाथ झुकाया तो कंकण भी गिर पड़ा। कंकण के बीच में पड़े हुए पिण्ड को जाल समझ कर कौआ देने पर भी नहीं खाता ॥ ५ ॥ ओहिदिअहागमासंकिरीहिं सहिआहिं कुडुलिहिआओ।। दोतिण्णि तहिं विअ चोरिआएँ रेहा पुसिज्जन्ति ॥६॥ [ अवधिदिवसागमाशङ्किनीभिः सखीभिः कुख्यलिखिताः। द्वित्रास्तत्रैव चोरिकया रेखाः प्रोञ्छयन्ते ।।], अवधि का दिन कहीं आकर चला न जाये-इस आशंका से सहेलियां दीवार पर अंकित रेखाओं में से दो तीन रेखायें वहीं छिप कर पोंछ देती है ॥ ६ ॥ तुह मुहसारिच्छं ण लहइ त्ति संपुण्णमण्डलो विहिणा । अण्णम व्व घडइपुणो वि खण्डिज्जइ मिअङ्को ॥ ७ ॥ [ तवमुखसादृश्यं न लभत इति संपूर्णमण्डलो विधिना। अन्यमयमिव घटयितु पुनरपि खण्डयते मृगाङ्कः॥] चन्द्रमा में तेरे मुख का सादृश्य नहीं मिलता, मानों यही सोचकर विधाता नया बनाने के लिये सम्पूर्ण चन्द्रमा को एक बार बनाकर फिर तोड़ डालते अज्जं गओत्ति अज्ज गओत्ति अज्जं गओत्ति गणरीए । पढम विअ दिअहद्धे कुढ्डो रेहाहि चित्तलिओ ॥८॥ [अद्य गत इत्यद्य गत इत्यद्य गत इति गणनशीलया। प्रथम एव दिवसाधं कुडयं रेखाभिश्चित्रितम् ॥] वे आज गये हैं, आज गये हैं, 'आज गये हैं' इस प्रकार गणना करती हुई विरहिणी ने पहले ही दिन दोपहर तक सारी दोवार चित्रित कर डाली ॥८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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