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तृतीयं शतकम्
ण वि तह पढमसमागमसुर असुहे पाविएवि परिओसो । जह वीअदिअहसविलक्खलक्खिए वअणकमलम्मि ॥ ९ ॥
[ नापि तथा प्रथमसमागमसुरतसुखे प्राप्तेऽपि परितोषः । यथा द्वितीय दिवससविलक्षलक्षिते वदनकमले ॥ ]
प्रथम समागम के समय सम्भोग सुख प्राप्त करने पर भी मुझे उतना सन्तोष नही हुआ, जितना दुसरे दिन सलज्ज दृष्टि वाला उसका मुख कमल देख
कर ॥ ९ ॥
जे समुहागअवोलन्तवलिअ पिअपेसिअच्छि विच्छोहा । अम्हं ते मअणसरा, जणस्स जे होन्ति ते होन्तु ॥ १० ॥
[ ये संमुखागतव्यतिक्रांत वलितप्रियप्रेषिताक्षिविक्षोभाः । अस्माकं ते मदनशरा जनस्य ये भवन्ति ते भवन्तु ॥ ]
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एक बार अनुनय के लिये सम्मुख आकर निराश लौटते समय प्रिय ने मेरो ओर मुड़ कर जो तरल दृष्टि डाली थी— दूसरे लोग चाहे जो समझें-मैं तो - उसे ही मदन बाण मानती हूँ ॥ १० ॥
इअरो जणो ण पावइ तुह जहणारुहण संगमसुहेल्लिं । अणुहवइ कणअडोरो हुअवहवरुणाणं माहप्पं ॥ ११ ॥
[ इतरो जनो न प्राप्नोति तव जघनारोहणसंगमसुखकेलिम् । अनुभव कनकदोरो हुतवहवरुणयोर्माहात्म्यम् ॥ ]
तुम्हारी जांघों पर चढ़कर रमण करने का सुख अन्य कोई न प्राप्त कर -सका, अकेला कनक-सूत्र ही अग्नि और वरुण के माहात्म्य का अनुभव कर रहा है ॥ ११ ॥
जो जस्स विश्वसारो तं सो देइ त्ति किं त्थ अच्छेरं ।
अणहोन्तं पि खु दिण्णं दोहग्गं तइ सवत्तीर्णं ।। १२ ।। [ यो यस्य विभवसारस्तं स ददातीति किमत्राश्चर्यम् । अभवदपि खलु दत्तं दौर्भाग्यं त्वया सपत्नीनाम् ॥ ]
जिसके पास जो धन है, वह उसे प्रदान करे तो कोई आश्चर्य नहीं, किन्तु तुमने अपने पास न रहने वाला दुर्भाग्य सपत्नियों को दे डाला ॥ १२ ॥
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