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गाथासप्तशती
चन्दसरिसं मुहं से सरिसो अमअस्स मुहरसो तिस्सा । सकअग्गहरह सुज्जलचुम्बणअं कस्स सरिसं से ॥ १३ ॥ [ चन्द्रसदृशं मुखं तस्याः सदृशोऽमृतस्य मुखरसस्तस्याः । सकचग्रहरभसोज्वलचुम्बनकं कस्य सदृशं तस्याः ॥ ] उसका मुख तो चन्द्र के सदृश है और अधर अमृत के किन्तु मैंने प्रेमावेग से उसकी केश - राशि को पकड़ कर जो पवित्र चुम्बन किया था, उसकी उपमा किससे दूँ ।। १३ ।।
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उप्पण्णत्थे कज्जे अइचिन्तन्तो गुणागुणे तम्मि | चिरआलमन्दपेच्छित्तणेण पुरिसो हणइ कज्जं ॥ १४ ॥ [ उत्पन्नार्थे कार्येऽतिचिन्तयन्गुणागुणौ तस्मिन् । चिरकालमन्दप्रेक्षित्वेन पुरुषो हन्ति कार्यम् ॥ ]
कार्य के फलोन्मुख हो जाने पर जो गुण-दोष की अधिक मीमांसा करने लगता है, वह पुरुष देर तक अनिष्ट की शंका करने के कारण बने कार्य को भी नष्ट कर देता है ॥ १४ ॥
बालअ तुमाहि अहिअं णिभअं विभ वल्लहं महं जीअं ।
तं तइ विणा ण होइ त्ति तेण कुविअं पसाएमि ॥ १५ ॥ [ बालक त्वत्तोऽधिकं निजकमेव वल्लभं मम जीवितम् । तत्त्वया विना न भवतीति तेन कुपितं प्रसादयामि ॥ ] मुझे अपने प्राण तुमसे अधिक प्रिय हैं, किन्तु वे तुम्हारे बिना रह ही नहीं सकते, इसीलिए बार-बार रूठ जाने पर भी तुम्हें मनाती हूँ ।। १५ ।।
पत्तिअ ण पत्तिअन्ती जइ तुज्झ इमे ण मज्झ रुअईए । पुट्ठीअ बाहबिन्दू पुलउब्भे एण निज्जन्ता ॥ १६ ॥
[ प्रतीहि न प्रतीयन्ती यदि तवेमे न मम रोदनशीलायाः । पृष्ठस्य वाष्पबिन्दवः पुलकोद्भेदेन भिद्यमानाः ॥ ]
विश्वास न करने वाली प्रिये ! यदि तेरे नेत्रों से गिरे हुये आँसू मेरी पीठके पुलकांकुरों से जर्जर न हो गये हों तो विश्वास कर लो ।। १६ ।।
तं मित्तं काअव्वं जं फिर वसणम्मि देसआलम्मि । आलिहियभित्ति वाउलअं व ण परम्मुहं ठाइ ॥ १७ ॥
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