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________________ तृतीयं शतकम् [ तन्मित्रं कर्तव्यं यत्किल व्यसने देशकालेषु । आलिखित भित्तिपुत्तलकमिव न पराङ्मुखं तिष्ठति ॥ ] मित्र उसी को बनाना चाहिये जो हर समय और हर स्थान पर दीवार में लिखित पुतले के समान संकट में विमुख न हो ॥ १७ ॥ बहुआ इणिउ पढमुग्गअसीलखण्डणविलक्खं । उड्डेइ विहंगउलं हा हा पक्खेहिं व भणन्तं ॥ १८ ॥ ५३. [ वध्वा नदीनिकुञ्ज प्रथमोद्गतशीलखण्डनविलक्षम् । उड्डीयते विहंगकुलं हा हा पक्षैरिव भणत् ॥ ] नदी के किकुज में पहली बार तरुणवधू का शील खंडित होने से लज्जित विहंग अपने पंखों से हाहाकार सा करते हुए उड़ रहे हैं ।। १८ ।। सच्चं भणामि बालअ णत्थि असक्कं वसन्तमासस्स । गन्धेण कुरवआणं मणं पि असइत्तणं ण गआ ॥ १९ ॥ [ सत्यं भणामि बालक नास्त्यशक्यं वसन्तमासस्य । गन्धेन कुरकाणां मनागष्य सतीत्वं न गता ।। ] सत्य कहती हूँ वसन्त मास के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है, परन्तु वह -तरुणी कुरवक की गन्ध से रंच भर सतोत्व से नहीं डिगी है ।। १९ ।। एक्वेक्कमवइवेठणविवरन्तर दिण्णतरलणअणाए । तइ बोलते बालअ पञ्जरसउणाइअं तीए ॥ २० ॥ [ एकैकवृतिवेष्टनविवरान्तरदत्ततरलनयनया त्वयि व्यतिक्रान्ते बालक पञ्जरशकुनायितं तथा ॥ ] 1 तुम्हारे अदृश्य हो जाने पर वह मृगनयनो बाड़ के वेठन के प्रत्येक छिद्र में, अपने तरल नेत्र डालकर पंजरबद्ध विहंगिनी-सी विवश होकर झाँकती रही । २० ।। ताकि करेउ जइ तंसि तीअ वइवेट्टपेलिअथणीए । पाअङ्गदुद्ध क्खित्तणीसहङ्गोअ वि ण ण दिट्ठो ॥ २१ ॥ [ कि करोतु यदि त्वमसि तया वृतिवेष्टन प्रेरितस्तनया | पादाङ्गुष्ठार्धक्षिप्त निःसहायापि न दृष्टः ।। ] पैरों के पंजों पर असहाय अंगों का भार रख कर खड़ी होने पर जब उसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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