________________
५४
गाथासप्तशती
उन्नत उरोज बाड़ की बेड़ियों में छू गये थे तब भी तुम दिखाई न दिये तो वहः क्या करे ? ॥ २१ ॥
पिअसंभरणपलोट्टन्तवाहधाराणिवाअभीआए। दिज्जइ वङ्कग्गीवाएँ दीवओ पहिअजाआए ॥२२॥ [प्रियसंस्मरणप्रलुष्ठद्वाष्पधारानिपातभोतया।
दोयते वक्रगीवया दोपकः पथिकजायया ॥] प्रिय की स्मृति में उमड़े हुए आँसुओं के गिरने से कहीं दोपक बुझ न जाय, इस शंका से पथिक-प्रिया अपनी ग्रीवा मोड़ कर दीप-दान कर रही है ।। २२ ।। तइ वोलन्ते बालअ तिस्सा असाइँ तह णु बलिआई। जह पुट्ठिमज्झणिवतन्तवाहधाराओं दोसन्ति ॥ २३ ॥ [त्वयि व्यतिक्रामति बालक तस्या अङ्गानि तथा नु वलितानि ।
यथापृष्ठमध्यनिपतद्वाप्यधारा दृश्यन्ते ।। ] उसके निकट से तुम जैसे ही दूसरी ओर गये, उसने अपने अंगों को इतना मोड़ लिया है कि आँसुओं की धार पीठ पर गिरती हुई दिखाई दे रही है ॥ २३ ॥ ता मज्झिमो विवअ वरं दुज्जणसुअणेहिँ दोहि वि ण कज्जं । जह दिट्ठो तवइ खलो तहेअ सुअणो अईसन्तो ॥२४॥
[ तन्मध्यम एव वरं दुर्जनसुजनाभ्यां द्वाभ्यमपि न कार्यम् ।
यथा दृष्टस्तापयति खलस्तथैव सुजतोऽदृश्यमानः ।।] सज्जन और दुजन दोनों का काम नहीं है। मध्यम पुरुष ही अच्छे है, क्योंकि जैसे दुर्जनों को देखने पर दुःख होता है, वैसे ही सज्जनों को न देखने पर ॥ २४ ॥ अद्धच्छिपेच्छिअं मा करेहि साहाविरं पलोएहि । सो वि सुदिट्ठो होहिइ तुमं पि मुद्धा कलिज्जिहिसि ॥२५॥
[अर्द्धाक्षिप्रेक्षितं मा कुरु स्वाभाविक प्रलोकय ।
सोऽपि सुदृष्टो भविष्यति त्वमपि सुग्धा कलिष्यसे । ] अरी ! आधी चितवन से क्यों देखती है, स्वाभाविक रूप से देख ले। वहः भो भलीभांति दिख जायगा और तुझे भी लोग मुग्धा हो समझेंगे ।। २५ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org