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तृतीयं शतकम् दिअहं खुडक्किआए तीए काऊण गेहवावरं । गरुए वि मण्णुदुःखे भरिमो पाअन्तसुत्तस्स ॥ २६ ॥ [ दिवसं रोषमुकायास्तस्याः कृत्वा गेहव्यापारम् ।
गुरुकेऽपि मन्युदुःखे स्मरामः पादान्तसुप्तस्य ।। ] दिन-भर क्रोध से चुपचाप गृह-कार्य में संलग्न रहकर अन्त में भारी दुःख में डूबी हुई प्रिया का पैरों की ओर आकर सो जाना स्मरण करता हूँ ॥ २६ ॥ पाणउडीअ वि जलिऊण हुअवहो जलइ जण्णवाडम्मि । ण हु ते परिहरिअव्वा विसमदसासंठिआ पुरिसा ॥२७॥ [पानकुटयामपि ज्वलित्वा हुतवहो ज्वलति यज्ञवाटेऽपि ।
न खलु ते परिहर्तव्या विषमदशासंस्थिताः पुरुषाः ।।] आगमदिरालय में जल कर यज्ञशाला में भी जलती है । तुम्हें विषम परिस्थिति में पड़े सत्पुरुषों का त्याग न करना चाहिये ।। २७ ॥ जं तुज्झ सई जाआ असईओ जं च सुहअ अह्म वि। ता किं फुट्टउ बीअं तुज्झ समाणो जुआ णस्थि ॥ २८॥
[ यत्तव सती जाया असत्यो यच्च सुभग वयमपि ।
तरिक स्फुटतु बीजं तव समानो युवा नास्ति ।। ] तुम्हारी पत्नी पतिव्रता है और हम सब व्यभिचारिणी हैं, इसका कारण क्या है ? तुम्हारे समान सुन्दर युवक नहीं है ॥ २८ ॥ सम्वस्सम्मि वि दबै तहवि हु हिअअस्स णिव्वुदि च्चे। जं तेण गामडाहे हत्थाहत्थि कुडो गहिओ ॥ २९ ॥
[ सर्वस्वेऽपि दग्धे तथापि खलु हृदयस्य निर्वृतिरेव ।
यत्तेन ग्रामदाहे हस्ताहस्तिकया कुटो गृहीतः ॥] सब कुछ जल कर स्वाहा हो गया फिर भी हृदय को आनन्द ही मिला क्योंकि गांव में आग लगने पर उन्होंने शीघ्रता में मेरे हाथ से घड़ा ले लिया ॥ २९॥ जाएज्ज वणुद्देसे कुज्जो वि हु णीसाहो झडितपत्तो। मा माणुसम्मि लोए ताई रसिओ दरिदो अ॥३०॥
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