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________________ गाथासप्तशती हो सकता है। पाइअसद्दमहण्णवकार ने पाशाकुसुम को देशी शब्द भी नहीं लिखा है अतः उसको संस्कृत कोशों में संगृहीत होना चाहिए था । परन्तु प्रचलित शब्दकोशों में वह दिखाई नहीं देता। इसके विपरीत वज्जालग्ग के पाठान्तर में स्वीकृत वासव शब्द का अर्थ असा होता है । इस कटु वृक्ष में श्वेत पुष्प लगते हैं । आयुर्वेदीय वासारिष्ट इसी से बनाया जाता है । संस्कृत वासव मा वासक का प्राकृत रूप वास होगा। वासम का रूप वासा भी हो सकता है। लगता है, वासा शब्द ही लिपि दोष से पाशा ( प्राकृत पासा ) बन गया है । अन्य कोशों में अनुपलब्ध होने के कारण इसका अस्तित्व प्रामाणिक नहीं है। ३९-एह इमीअ णिअच्छह विम्हिअहिअआ सही पुलोएइ। अद्धाअम्मि कवोलं कवोलपट्टम्मि अदा ॥ १८ ॥ "यहाँ आओ, देखो ! आश्चर्य-भरे हृदय से सखी आइने में गाल को और गाल में आइने को देख रही है।" इस अनुवाद में 'इमीम' पद की उपेक्षा कर दी गई है। इससे गाथा का अर्थ विपर्यस्त हो गया है । ऐसा लगता है, जैसे सखी ही अपना कपोल दर्पण में और अपने कपोल में दर्पण को देख रही है। अनुवाद का उचित स्वरूप यह है यहाँ आओ, देखो, विस्मित-हृदया सखी इस ( नायिका) के कपोल को दर्पण में और दर्पण को इसके कपोल में देख रही है। गाथा में नायिका के कपोलों का नैर्मल्य एवं दर्पणवद् प्रतिबिम्ब ग्राहकत्व वर्णित है। ४०-मग्गिअलद्धे बलमोडिचुम्बिए अप्पाणेण उवणीए । एक्कम्मि पिआअहरे अण्णण्णा होति रसहेआ॥८२१॥ मागित लब्धे बलमोडचुम्बिते आत्मनोपनोते। एकस्मिन् प्रियाऽधरेऽन्यान्या भवन्ति रससेकाः ॥ उपयुक्त संस्कृतच्छाया अशुद्ध है । शुद्ध संस्कृतच्छाया यों होगी मागितलब्धे बलादामोट्य चुम्बिते आत्मनोपनीते । एकस्मिन् प्रियाऽधरेऽन्यान्या भवन्ति रसभेदाः ॥ अर्थ-प्रिया का अधर कभी मांगने पर (चुम्बनार्थ ) उपलब्ध होता है, कभी बलपूर्वक चम लिया जाता है और कभी वह उसे स्वयं ही दे देती हैइन तीनों स्थितियों में एक ही अधर के चुम्बन के आनन्द ( रस ) में अन्तर ( भेद ) होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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