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________________ ३५ अर्थनिरूपण रोग पक्ष-वैद्य ! पिपासा वर्धते घनतापो क्षणे क्षणे रोमाञ्चः । हृदये न भात्यन्नं लाजापथ्यैस्त्याजिता प्राणाः ॥ प्रणय पक्ष-वैद्य ! प्रियाशा वर्धते घनतापः क्षणे क्षणे रोमाञ्चः । १. हृदये न भाल्यन्यत् लज्जापथ्यैस्त्यागिताः प्राणाः॥ गाथार्थ रोग-पक्ष-हे वैद्य ! प्यास बढ़ रही है, घना ताप ( ज्वर) है, क्षण-क्षण रोमाञ्च होता है। ( शीत ज्वर में ताप भी बढ़ता है और शीत के कारण रोमाञ्च भी होता है।) हृदय में अन्न ( अनाज या भोजन ) अच्छा नहीं लगता, लावा के पथ्यों के द्वारा ( अर्थात् लावा खिला-खिला कर ) मेरे प्राण निकाल लिये गये हैं ( अर्थात् मैं लगभग मर चुकी हूँ।) प्रणयपक्ष-हे वैद्य ! प्रिय की आशा ( तृष्णा) बढ़ रही है, धना ताप है, (विरह-ताप) क्षण-क्षण रोमाञ्च हो रहा है, ( प्रियतम के आंगिक सम्पर्क की परिकल्पना से ) हृदयमें अन्य पुरुष अच्छा नहीं लगता, पथ्यके समान ( अप्रिय ) लज्जा ( लोकलज्जा ) के द्वारा मेरे प्राण छुड़ाये जा चुके हैं । ३८-छ'प्प! गम्मसु सिसिरं पासाकुसुमेहि ताव मा मरसु । जीअन्तो वच्छिहिसि अ पुणो बि रिद्धि वसंतस्स ॥८१३॥ इस गाथा की विस्तृत व्याख्या मैं वज्जालग्ग में कर चुका हूं। यहां इसे उद्धृत करने का उद्देश्य एक शब्द से सम्बन्धित भ्रान्ति का निवारण करना है। वह शब्द है पाशाकुसुम । अनुवादक ने उसका अर्थ पुष्पविशेष किया है । पाइअसद्दमहण्णव में भी पाशाकुसुम शब्द संगृहीत है । कोशकार ने उसका अर्थ पुष्पविशेष ही लिखा है । किसी ने यह नहीं लिखा है कि उक्त पुष्प विशेष की पहचान क्या है । पाइअसद्दमहण्णवकार ने अपने दिये हुए अर्थ के प्रमाण में उपयुक्त गाथा को उद्धृत किया है जिसका पाठ वज्जालग्ग में निम्नलिखित है छप्पअ ! गम्मसु सिसिरं वासव कुसुमेहिं ताव मा मयसु । मन्ने नियंतो पेच्छसि पउरा रिद्धी वसंतस्स ।। इस पाठ में पासाकुसुम (पाशाकुसुम ) के स्थान पर वासवकुसुम शब्द आया है। अतः प्रस्तुत गाथा में पाशाकुसुम का प्रयोग संदिग्ध है। किसी संदिग्ध स्थिति वाले शब्द का कोश में संग्रह होने से एक व्यापक भ्रम उत्पन्न १- हे भ्रमर ! अड़ से के पुष्पों से तब तक शिशिर बिता दो । मरो मत । यदि जीवित रहोगे तो वसन्त की प्रचुर समृद्धि पुनः देखोगे । २- पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान वाराणसी से प्रकाशित । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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