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गाथासप्तशती
पाश्चात्य पंडित वेबर के अनुसार गाथा का ठीक अर्थ नहीं लगता है । अस्पष्टार्थता के कारण इसे अनूदित नहीं किया गया है। प्रस्तुत गाथा की संस्कृतच्छाया इस प्रकार होगी
गावः पञ्च रवारम्भणशीलाश्चत्वारः समर्थवलीवर्दाः ।
सम्पन्नं कक्षेत्र सेवाशिवं करोतु ॥ इसमें एक ऐसे सम्पन्न कृषक का वर्णन है जो अपनी गृहस्थी से पूर्ण सन्तुष्ट है और नौकरी ( सेवा ) नहीं करना चाहता। __ गाथार्थ- ( मेरे पास ) शब्द पूर्वक ( जोर-जोर ) राँभने ( गाय का शब्द ) वाली पाँच गायें हैं, चार समर्थ बैल है, काकुनि ( कङ गू= एक विशेष प्रकार का अन्न ) का खेत पक ( सम्पन्न ) गया है। सेवा (नौकरी) मुक्ति ( शिव ) प्रदान करें ( मुझे छुट्टी दे, या मुक्त कर दे, मुझे उसकी आवश्यकता ही नहीं है।) शब्दार्थ- पक्कल = समर्थ
वाला = काकुनि
वल्लरअं = खेत ३६-विज्जः पिआसा बहलइ घणताओ रवणखणम्मि रोमंचो। हिअए ण भाइ अण्णं लज्जापत्थेहि तेजिआ पाणा ॥८०८॥ [ वैद्य! पिपासा वर्धते घनतापः क्षणे क्षणे रोमाञ्चः ।
हृदये न भात्यन्यत् लज्जापथ्यैस्त्याजिताः प्राणाः ॥] "वैद्यजी, प्यास जोर से लगती है, खूब ताप रहता है, तुरंत-तुरंत रोमांच होता है, अन्न अच्छा नहीं लगता, लज्जा के पथ्य से प्राण छूट रहे हैं।" ___ उपयुक्त अर्थ और संस्कृतच्छाया-दोनों अपूर्ण हैं । गाथा में जिस रुग्णा नायिका का वर्णन है वह चिकित्सक की प्रच्छन्न प्रयसी है । वह प्रेमी वैद्य को श्लिष्ट शब्दों के माध्यम से अपनी मर्मान्तक विरह-यन्त्रणा की सूचना दे रही है। उसके वचन-विन्यास का एक पक्ष रोग से सम्बद्ध है और द्वितीय पक्ष प्रणय से । पूर्वोद्धृत एकपक्षीय अनुवाद में प्रणयान्वित अर्थ को भ्रम वश रोग के प्रकरण में रख दिया गया है । रोग के प्रसंग में लज्जा के पथ्य का कोई औचित्य ही नहीं है। वहाँ लज्जा का अर्थ श्लेषानुरोध से लाजा ( लावा ) है । रोगियों को लाजा ( लावा ) का पथ्य प्रायः दिया जाता है ( क्योंकि वह सुपाच्य होता
गाथा के उभयपक्षीय संस्कृत रूपान्तरण यों होंगे
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